डेरेक ओ’ ब्रायन का ब्लॉग: मनरेगा पर विपक्ष को देना चाहिए सकारात्मक सुझाव

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 15, 2020 01:36 PM2020-06-15T13:36:59+5:302020-06-15T13:36:59+5:30

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत ने अक्तूबर में जबकि महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाई, उनके नाम पर ही रखी गई रोजगार गारंटी योजना अधर में है.

Derek O'Brien's blog: Opposition should give positive suggestions on MNREGA | डेरेक ओ’ ब्रायन का ब्लॉग: मनरेगा पर विपक्ष को देना चाहिए सकारात्मक सुझाव

मनरेगा के तहत काम करती महिला मजदूर (फाइल फोटो)

मीडिया में कोविड-19 महामारी को लेकर आंकड़ों, परीक्षण, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन, प्रवासी मजदूरों की व्यथा, अनियोजित लॉकडाउन जैसे तमाम विषयों पर खूब चर्चा हुई, लेकिन जो एक मुद्दा सुर्खियां बटोर नहीं पाया वह था- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून कार्यक्रम (मनरेगा).

एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्होंने संसद के पटल पर मनरेगा को केवल ‘गड्ढे खोदने’ की योजना करार दिया था, आज तनावग्रस्त ग्रामीण जनता को उबारने के लिए पूरी तरह से इसी पर निर्भर हैं. हकीकत का यह अहसास देर से आया, लेकिन दुरुस्त आया.

मनरेगा शायद दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है. इसके लाभार्थियों की संख्या लगभग 12 करोड़ है. बेरोजगारी जबकि 45 बरस में सबसे ज्यादा है और कोविड-19 महामारी ने जबकि अर्थव्यवस्था को तबाह कर रखा है, मनरेगा के आंकड़ों में उछाल आना तय है.

प्रवासी मजदूर (मैं उन्हें अतिथि मजदूर कहना ज्यादा पसंद करता हूं) अपने घर, गांवों को लौटने के बाद मनरेगा के तहत ही काम की तलाश कर रहे हैं. अप्रैल 2020 के बाद मनरेगा में 35 लाख नए मजदूरों ने पंजीयन कराया है. यह पिछले वर्ष के नए मजदूरों की तुलना में बहुत ज्यादा है. यही हालात की गंभीरता को बताने के लिए पर्याप्त है.

कोविड-19 महामारी के प्रसार से पहले केंद्र में मौजूद भाजपा सरकार मनरेगा को कमजोर करके बंद करने की ही कोशिश में थी. 2015 में प्रधानमंत्री ने इसे ‘‘विफलता का जीता-जागता स्मारक’’ करार दिया था. 2019-20 और 2020-21 के बजट में पिछले वर्ष के वास्तविक खर्च की तुलना में मनरेगा के आवंटन में कटौती की गई.

वित्त वर्ष 2019-20 में मनरेगा परिव्यय का 95 प्रतिशत 6 जनवरी तक ही खर्च हो गया था, जबकि वित्त वर्ष के दो महीने बाकी थे. ग्रामीण विकास मंत्रलय ने अतिरिक्त 20,000 करोड़ रु. की मांग की थी. उसे केवल 5000 करोड़ रु. दिए गए. और अब एकाएक केंद्र सरकार ने यू-टर्न ले लिया है. वह मनरेगा को बढ़ावा देने का दावा कर रही है. लेकिन यहां भी आंकड़े बातों को बताने से ज्यादा तो छिपा ही रहे हैं. देखें तीन उदाहरण:-

1. मार्च में न्यूनतम दैनिक वेतन 20 रु. बढ़ाकर 202.9 रु. किया गया था. यह 31 राज्यों व 10 केंद्रशासित प्रदेशों के न्यूनतम वेतन से कम है.
2. केंद्र सालाना घरेलू आय में 2,000 रु. के इजाफे का दावा कर रहा है. इस गणना में 100 कार्य दिनों को आधार बनाया गया है. वास्तविकता में मनरेगा ने पिछले कुछ सालों में केवल 45-50 दिन का रोजगार ही तैयार किया है.
3. वित्त मंत्री ने मनरेगा के लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ उपलब्ध कराने की घोषणा की थी. इसमें से 11,500 करोड़ रु. तो पिछले भुगतान का ही बकाया था. बची हुई राशि से केंद्र सरकार का इरादा 300 करोड़ या तीन अरब व्यक्ति-दिन परिश्रम उत्पन्न करने का है. लेकिन अप्रैल-मई 2020 के दौरान मनरेगा से मिला रोजगार इसी अवधि में 2019 में मिले रोजगार से कम था.

वाहवाही लूटने की ऐसी कोशिश निराशाजनक है. राष्ट्रहित में राज्यों और केंद्र सरकार को मिलकर काम करना चाहिए और विपक्ष में मौजूद हम जैसे लोगों को रचनात्मक सुझाव देने चाहिए. मनरेगा की बात की जाए तो चार बिंदुओं वाला एक रास्ता है जिसे भाजपा सरकार को अपनाना चाहिए:-

1. उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर पंजीकृत व्यक्ति को पूरे 100 दिन का काम मिले. महामारी के बाद तो यह और भी महत्वपूर्ण हो गया है.
2. वेतन का और पुनर्निर्धारण हो. इसे ग्रामीण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाए. मनरेगा के तहत दिया जाने वाला 202 रु. प्रतिदिन का वेतन भारत में गैर-कुशल मजदूर के औसत वेतन से 40-50 प्रतिशत कम है. एक विशेषज्ञ समिति ने 2019 में इसे 375 रु. प्रतिदिन करने का सुझाव दिया था.
3. कानून के मुताबिक काम पूरा होने के 15 दिन के भीतर वेतन का भुगतान हो जाना चाहिए. मैदानी हकीकत कुछ और है.
4. बेरोजगारी भत्ते की एक पखवाड़े की अवधि को राज्यों और मजदूरों को कुछ राहत देने के लिए बढ़ाया जाना चाहिए. केंद्र को राज्यों पर से आर्थिक बोझ कम करने के लिए कच्चे माल के भुगतान में भी हिस्सेदारी करनी चाहिए. यह वक्त मोलभाव का नहीं है.

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत ने अक्तूबर में जबकि महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाई, उनके नाम पर ही रखी गई रोजगार गारंटी योजना अधर में है. गांधीजी ने एक बार कहा था, ‘‘गरीबी, हिंसा से भी बदतर है.’’ कोविड-19 से उपजे हालात में मनरेगा ग्रामीण भारत में हिंसा और पीड़ा रोकने का सबसे कारगर साधन है. केंद्र को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए.
 

Web Title: Derek O'Brien's blog: Opposition should give positive suggestions on MNREGA

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