बाल विवाह का अभिशाप अभी भी कायम है हमारे समाज में
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: March 23, 2023 04:05 PM2023-03-23T16:05:42+5:302023-03-23T16:11:52+5:30
महाराष्ट्र में बीते तीन वर्षों में जुटाये गये आंकड़ों के अनुसार 16 आदिवासी जिलों में 15253 नाबालिग लड़कियां मां बनी हैं। इन लड़कियों का विवाह बहुत कम आयु में हो गया, जिसके कारण कई लड़कियां बालिग होने के पहले ही मां बन गई थीं।

बाल विवाह का अभिशाप अभी भी कायम है हमारे समाज में
महाराष्ट्र विधान परिषद में मंगलवार को महिला तथा बाल विकास मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा ने नाबालिग आदिवासी लड़कियों के मातृत्व को लेकर जो जानकारी दी वह न केवल स्तब्ध कर देती है बल्कि अल्पवयीन लड़कियों के विवाह रोकने में प्रशासन की विफलता को भी उजागर करती है।
लोढ़ा के मुताबिक गत तीन वर्षों में राज्य के 16 आदिवासी जिलों में 15253 नाबालिग लड़कियां मां बनीं। इन लड़कियों का विवाह बहुत कम आयु में हो गया और बालिग होने के पहले ही वे मां बन गईं। यह जानकारी सिर्फ 16 जिलों की है जो राज्य सरकार ने एकत्र की है। यह संख्या भी आदिवासी लड़कियों तक ही सीमित है। अगर व्यापक अभियान चलाकर राज्य के सभी जिलों से जानकारी जुटाई जाए तो बाल विवाह का डराने वाला चित्र सामने आ सकता है। 15 हजार से ज्यादा नाबालिग आदिवासी लड़कियों के मातृत्व की खबर से पता चलता है कि समाज अभी भी रूढ़ियों में जकड़ा है।
भारत में जिन सामाजिक कुरीतियों के कारण महिलाएं सर्वाधिक प्रताड़ित हैं, उनमें बाल विवाह प्रमुख है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बाल विवाह कानूनन प्रतिबंधित होने के बावजूद दुनिया में सबसे ज्यादा नाबालिग लड़कियों के विवाह भारत में होते हैं। हर साल भारत में 18 साल से कम उम्र की 15 लाख लड़कियों का विवाह उनके परिजन कर देते हैं। देश में 15 से 18 वर्ष की आयु की लगभग 20 प्रतिशत लड़कियां विवाहित हैं।
बाल विवाह रोकने के लिए कानून तो मौजूद हैं, साथ ही केंद्र तथा राज्य सरकारें जनजागृति पर भी अरबों रुपए खर्च करती हैं। ये विवाह चोरी-छुपे नहीं होते। प्रत्येक परिवार अपनी आर्थिक क्षमता के हिसाब से इनका आयोजन करता है लेकिन प्रशासन मौन रहता है।लड़कियों को हमेशा बोझ समझा जाता है। परिवार जल्दी से जल्दी उनका विवाह कर इस बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। मानव सभ्यता विकास के चरम पर है, इसके बावजूद लड़कियों के प्रति समाज और परिवार के नजरिये में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है और कम उम्र में लड़कियों के हाथ पीले करने की मानसिकता बदल नहीं रही है।
आदिवासी तबकों में अगर कम आयु में लड़कियों के विवाह हो रहे हैं, तो मतलब साफ है कि शिक्षा की रोशनी उन तक पूरी तरह नहीं पहुंच पा रही है। बाल विवाह से होने वाले नुकसान को आदिवासी समझ नहीं पा रहे हैं और आज भी वे बाल विवाह की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
विधान परिषद में लोढ़ा ने मां बनने वाली नाबालिग लड़कियों के आंकड़े तो बताए, मगर यह नहीं बताया कि इन लड़कियों का विवाह कानून को ठेंगा बताकर कैसे हो गया। इन लड़कियों का विवाह रुकवाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर प्रयास क्यों नहीं किए गए। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में तीन वर्ष पूर्व यह निष्कर्ष निकाला गया था कि देश में बाल विवाह का उन्मूलन करने की दिशा में कोई ठोस प्रगति होती दिखाई नहीं दे रही है।
कम आयु में लड़कियों या लड़कों का विवाह कर देना उनके मानवाधिकारों का हनन करना भी है। जिस उम्र में उनका तेजी से मानसिक और शारीरिक विकास होता है, उस आयु में विवाह बंधन में बांध दिया जाता है। इससे उनका मानसिक तथा शारीरिक विकास तो अवरुद्ध होता ही है, शैक्षणिक तथा आर्थिक विकास की दौड़ में भी वे पीछे रह जाते हैं। कम उम्र में विवाह के कारण शिक्षा के द्वार बंद हो जाते है।इससे वे जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते।
कम उम्र में मातृत्व के कारण लड़कियों का स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित होता है एवं उनके अल्पजीवी होने का खतरा बढ़ जाता है। बाल विवाह सिर्फ आदिवासियों तक ही सीमित नहीं है। कई समुदाय बाल विवाह को अपनी परंपरा का अभिन्न हिस्सा समझते हैं। उनके लिए लड़कियों की शिक्षा से ज्यादा परंपरा का पालन महत्वपूर्ण हो जाता है। समय के साथ-साथ शिक्षा का प्रसार हो रहा है। इससे बाल विवाह की संख्या कम हो रही है लेकिन उसके उन्मूलन के लिए अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है।
सामाजिक संस्थाएं बाल विवाह रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। पिछड़े तबकों के विकास के लिए चलाई जा रही अनेक योजनाओं का भी असर हो रहा है लेकिन जब तक लड़कियों के प्रति परिवार एवं समाज का नजरिया नहीं बदलेगा, तब तक बाल विवाह का उन्मूलन करना संभव नहीं है।