लोकमित्र का ब्लॉगः मानवीय गरिमा पर मंडराता खतरा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 11, 2018 03:11 PM2018-12-11T15:11:27+5:302018-12-11T15:11:27+5:30
महिलाओं के विरुद्ध तमाम दावों के बावजूद लगातार बढ़ती बलात्कार की घटनाएं, दलितों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचार, अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरेआम होता भेदभाव और धर्म तथा जाति के उन्माद में शुरू हुआ ‘मॉब लिंचिंग’ का दौर मानवाधिकारों का मजाक है.
लोकमित्र
द्वितीय विश्वयुद्ध की महाविभीषिका से गुजरने के बाद दुनिया ने बहुत शिद्दत से इस बात को समझा था कि जब तक दुनिया के हर इंसान की बुनियादी गरिमा सुनिश्चित नहीं होगी, तब तक इंसानों और जानवरों में कोई फर्क नहीं होगा. इसीलिए 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य सभा के एक बृहद सम्मेलन में, जिसमें दुनियाभर के महत्वपूर्ण देशों और संगठनों के प्रतिनिधि मौजूद थे, बुनियादी मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृति प्रदान की गई. इस घोषणा के तहत ऐलान किया गया कि धरती में पैदा हुए हर इंसान की जिंदगी को महत्वपूर्ण माना जाएगा. यह भी कहा गया कि कुछ भी हो जाए, किसी भी स्थिति में किसी भी इंसान से मानवीय गरिमा के ये अधिकार नहीं छीने जाएंगे जिन्हें हम मानवाधिकार कहते हैं.
पूरी दुनिया ने इन सार्वभौम मानवाधिकारों को अपने-अपने ढंग से स्वीकृति दी और उन्हें अपने-अपने देशों के संविधानों में भी शामिल किया. हमने हालांकि काफी साल बाद 1993 में मानवाधिकार आयोग की स्थापना करके इन अधिकारों को कानूनी जामा पहनाया, लेकिन भारतीय संविधान में जो मूल अधिकार मौजूद हैं, उन अधिकारों की पृष्ठभूमि में भी इन्हीं सार्वभौम मानवाधिकारों की गरिमा मौजूद है. लेकिन संविधान में मौजूद मूल अधिकारों और 1993 में मानवाधिकारों को कानूनी गारंटी देने के बावजूद आज देश में इंसानी गरिमा छिन्न-भिन्न हो रही है.
महिलाओं के विरुद्ध तमाम दावों के बावजूद लगातार बढ़ती बलात्कार की घटनाएं, दलितों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचार, अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरेआम होता भेदभाव और धर्म तथा जाति के उन्माद में शुरू हुआ ‘मॉब लिंचिंग’ का दौर मानवाधिकारों का मजाक है. यह पहला ऐसा दौर है जब पूरी दुनिया में अलग-अलग कारणों से 80 करोड़ से भी ज्यादा लोग विस्थापितों का जीवन जी रहे हैं. हर साल जातीय और नस्ली दंगों, आतंकवाद और सरहदों की लड़ाई में 5 लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा रहे हैं.
करोड़ों लोगों को भोजन उपलब्ध नहीं है. पूरी दुनिया में हर साल 20 लाख से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं. मुठभेड़ों में तमाम मासूम मारे जा रहे हैं. यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि किताबों में भले मानवाधिकारों की बड़ी-बड़ी दुहाइयां दी गई हों. लेकिन वास्तविकता यही है कि दुनिया के हर कोने में आज मानवाधिकारों का खौफनाक हनन हो रहा है.
वक्त आ गया है कि हम मानवाधिकारों को सिर्फ रस्म अदायगी के लिए न याद करें बल्कि ईमानदारी से उन पर अमल करें वर्ना बिना तीसरा महायुद्ध हुए भी दुनिया का खात्मा हो सकता है.