एन. के. सिंह का ब्लॉगः मास्क के लिए भी क्यों चलाना पड़े कानून का डंडा?
By एनके सिंह | Published: June 6, 2020 06:14 AM2020-06-06T06:14:23+5:302020-06-06T06:14:23+5:30
कोरोना से मृत्यु-दर भले ही कम हो लेकिन इतिहास गवाह है कि आर्थिक गतिविधि लंबे समय तक रुकने के अपरिहार्य परिणाम में भूख से मौत की दर सौ फीसदी होती है. देश को इससे भी बचना था.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहले 14 साल तक चांसलर रहकर पश्चिम जर्मनी को आर्थिक-सामरिक शक्ति बनाने वाले कोनराड अडेन्यूर का एक प्रसिद्ध कथन है ‘‘मानव तैयार करने में ईश्वर ने एक घटिया समझौता किया. अगर वह मनुष्य को थोड़ा और बुद्धिमान बना देता तो वह उचित आचार-व्यवहार करने लगता लेकिन अगर उसे थोड़ा कम बुद्धि देता तो उसे शासित करना मुश्किल होता’’. उनका तात्पर्य था- मनुष्य पर शासन की अपरिहार्यता बनी रहेगी.
कोविड-19 जैसी संक्रामक महामारी ने पूरी दुनिया को हिला दिया है. इसका शिकार कौन है ? जवाब -व्यक्ति. इसे असावधानी के कारण या स्वछंदता की ललक में संक्रमित व्यक्ति द्वारा फैलाने से कौन शिकार होगा? जवाब - उसके संपर्क में आने वाला यानी सबसे पहले परिवार फिर मुहल्ला या कार्यस्थल पर उसके साथी? किसी भी कारगर दवा या वैक्सीन के अभाव में इसका सबसे सहज निदान क्या है? जवाब-दो गज की दूरी और मास्क. ये सब करने से कौन बच सकता था? जवाब स्वयं व्यक्ति. लेकिन भारत के गृह-मंत्रालय ने 68 दिनों के चार लॉकडाउन में ‘‘कौन क्या करें, क्या न करें’’ के कुल 94 आदेश दिए यानी हर रोज 1.3 आदेश की दर से.
आखिर क्यों किसी पुलिस वाले को 24 घंटे सड़क पर खड़े रहना पड़ता है लाठी लेकर कि आप घर से बाहर न निकलें बगैर वैध पास के? आखिर क्यों प्रधानमंत्री की ताजा ‘‘मन की बात’’ में लॉकडाउन के सवा दो माह बाद भी बताना पड़ता है कि ‘‘कोविड-19 अभी भी उतना ही बड़ा खतरा है लिहाजा सावधानी बरतें’’. क्या प्रधानमंत्री का संदेश, गृह मंत्रालय का आदेश और पुलिस का डंडा हमें हर रोज यह बताने के लिए जरूरी है कि ‘‘आप अपने और समाज के हित में मास्क पहनें, दूरी बनाए रखें?’’
जब यह महामारी अपने चरम की ओर जबरदस्त तेजी से बढ़ रही हो, चार लॉकडाउन वाली ‘‘जन-तपस्या’’ को ‘‘अनलॉक’’ में बदलना कहीं महंगा न पड़े. हर आम-ओ-खास को इसका अहसास है. लेकिन जीवन की कुछ और भी शर्तें होती हैं. कोरोना से मृत्यु-दर भले ही कम हो लेकिन इतिहास गवाह है कि आर्थिक गतिविधि लंबे समय तक रुकने के अपरिहार्य परिणाम में भूख से मौत की दर सौ फीसदी होती है. देश को इससे भी बचना था. लिहाजा यह मानकर कि समाज कोरोना से भी लड़े और भुखमरी से भी बचे, दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत सरकार ने भी एक समझौता किया. उसे यह भी समझ में आ गया है कि कोरोना जाने वाला नहीं है और दूसरी ओर सर्वमान्य दवा की फिलहाल संभावनाएं बेहद क्षीण हैं. लिहाजा आर्थिक गतिविधि शुरू करना तात्कालिक मजबूरी है.
फिर इस महामारी में चूंकि इलाज की भूमिका भी नगण्य है और वायरस अधिकांश मामलों में जानलेवा नहीं है लिहाजा सरकार और स्वास्थ्य तंत्र केवल उन्हीं मामलों में ज्यादा चिंतित है जिनमें संस्थागत स्वास्थ्य हस्तक्षेप की जरूरत हो. कुछ हद तक यह सोच सही भी है क्योंकि अस्पताल में औसत कोविड-19 मरीज को जो दवाएं दी जा रही हैं उनकी सार्थकता पर अभी भी विश्व वैज्ञानिक समुदाय एकमत नहीं है.
हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसे भारत दवा के रूप में इस्तेमाल कर रहा है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन इसके प्रयोग के खिलाफ है और अमेरिकी राष्ट्रपति इसकी पुरजोर वकालत कर रहे हैं. रेमडेसिविर के प्रभाव को लेकर भी अभी भ्रम बना हुआ है. वैक्सीन की खोज और फिर उसका वाणिज्यिक उत्पादन तो अभी दूर की कौड़ी है. ऐसे में 139 करोड़ लोग क्या करें? यहां आत्म-संयम के साथ एक नई कार्य-संस्कृति की जरूरत है जिसे अगले कई दशकों तक बनाए रखना होगा. और उस संस्कृति का पहला चरण है दो अनजान लोगों के बीच ‘‘दो गज’’ की सुरक्षित दूरी को आम-व्यवहार में लाना. और इतना ही जरूरी है मास्क पहनना.
विश्व-विख्यात लांसेट संस्था ने दुनिया के तमाम देशों की 44 रिपोर्टों का एक साथ अध्ययन करके पाया कि सामाजिक दूरी बनाए रख कर और मास्क पहन कर काफी हद तक व्यक्ति इस रोग से बच सकता है. यही परिणाम पूर्व में सार्स और मर्स को लेकर हुए अध्ययनों में मिला. यानी इन दोनों का प्रयोग करके रोग से ग्रस्त होने के संकट को चार से पांच गुना कम किया जा सकता है. सार्स, इबोला, मर्स, डेंगू और स्वाइन फ्लू आदि के नाम से हर दो साल पर कोई न कोई संक्रामक रोग हमारे अस्तित्व के लिए चुनौती बनता जा रहा है. ऐसे में कुछ अमेरिकी राज्यों और यूरोपीय देशों में व्यक्तिगत स्वछंदता के नाम पर लॉकडाउन की बंदिशों, सुरक्षित दूरी और मास्क की अनिवार्यता की अवहेलना करना सिर्फ यही बताता है कि हमें इतने विकास के बाद भी अपने को शासित करने के लिए कोई संस्था, राजदंड या सरकार की जरूरत है.