महामारी और आर्थिक संकट की दोहरी चुनौती से जूझता मध्य वर्ग, प्रकाश बियाणी का ब्लॉग
By Prakash Biyani | Published: April 20, 2021 05:25 PM2021-04-20T17:25:56+5:302021-04-20T17:26:40+5:30
मार्च 2020 में कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए देश में 78 दिन का लंबा और सख्त लॉकडाउन हुआ था.
कोई नहीं जानता कि सन् 1720 में वैश्विक महामारी प्लेग, 100 साल बाद 1820 में कॉलरा और फिर 100 साल बाद 1920 में स्पैनिश फ्लू, कॉलरा से हमारे देश में कितने लोग मरे थे.
देश तब गुलाम था. ब्रिटिश सरकार गुलाम भारतीयों की चिंता नहीं करती थी. अधिकांश एलोपैथी चिकित्सक तब अंग्रेज थे जो अंग्रेजों का उपचार करते थे. निरक्षर भारतीय गांव के वैद्य या तांत्रिक-मांत्रिक पर निर्भर थे. कहते हैं कि उन दिनों लोग एक रिश्तेदार को श्मशान में छोड़कर आते तो दूसरा घर में अंत्येष्टि के लिए तैयार मिलता था.
चौथी बार, सौ साल बाद 2020 में कोरोना पहली महामारी है जिसका हमारी पीढ़ी सामना कर रही है. इस महामारी ने देश के हेल्थ केयर सिस्टम की पोल खोल दी है. हमारी सोच को बदल दिया है. कोरोना चला जाएगा पर अब हमारा जीवन पहले जैसा नहीं रहेगा. हम सबको समझ में आ गया है कि बच्चों की शिक्षा और शादी से पहले हेल्थ इमरजेंसी के लिए बचत करनी चाहिए.
जो अतीत को भूल जाते हैं या अतीत से सबक नहीं सीखते, उन्हें उसे दोहराने की सजा मिलती है. याद करें कि मार्च 2020 में कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए देश में 78 दिन का लंबा और सख्त लॉकडाउन हुआ था. सारी कारोबारी गतिविधियां थम गई थीं. अप्रवासी मजदूरों ने बेरोजगारी से परेशान हो पलायन शुरू किया तो उनकी दुर्दशा देख देश में हाहाकार मच गया था.
2021 का हमने इस उम्मीद के साथ स्वागत किया कि कोरोना जा रहा है. कोरोना वैक्सीन आ जाने से भी हम सब खुश थे. कोरोना को लेकर हम लापरवाह हो गए. सोशल गैदरिंग होने लगी. राजनेताओं ने चुनावी रैलियों में भीड़ इकट्ठा की. कुंभ मेले में लाखों लोग उमड़ पड़े. इस लापरवाही की सजा मिली. वैक्सीनेशन शुरू हुआ ही था कि कोरोना की दूसरी लहर आ गई. लॉकडाउन के डर से अप्रवासी मजदूर फिर घर लौटने लगे हैं. कोरोना 2020 से सबक सीखकर मजदूरों का आना-जाना रोकने का बंदोबस्त न तो सरकार ने किया और न ही इन्हें रोजगार देनेवाले उद्योगों ने.
याद करें कि सितंबर 2020 में एक दिन में एक लाख संक्रमित आ रहे थे जो 2021 की शुरुआत में घटकर 10 हजार रह गए थे. कोरोना की दूसरी लहर आई तो आठ दिन में कोरोना संक्रमण 20 से 40 हजार यानी दोगुना हुआ, इसके बाद 14 दिन में 80 हजार और फिर 10 दिन में 1.60 लाख. इसके साथ हेल्थ केयर सिस्टम ढह गया है. जिन स्वास्थ्यकर्मियों के लिए हमने थाली बजाई, दिए जलाए और फूल बरसाए थे, वे थक गए हैं. सरकारी अस्पताल पहले भी भगवान भरोसे थे, अब तो उन्होंने हाथ ऊंचे कर दिए हैं.
कोरोना से कम और ऑक्सीजन या इंजेक्शन नहीं मिलने से ज्यादा मौतें हो रही हैं. कभी सिनेमा हाल हाउसफुल होते थे अब मचरुरी और मुक्तिधाम में वेटिंग और एडवांस बुकिंग हो रही है. कोरोना संक्रमण यदि इसी गति से फैलता रहा तो मई माह के पहले सप्ताह में कोरोना एक्टिव छह लाख से ज्यादा होंगे. आज इससे आधे मरीजों को उपचार नहीं मिल रहा है तो तब क्या होगा? मुक्तिधाम में लाशों के ढेर लग जाएंगे.
‘जान है तो जहान है’ को स्वीकार करते हुए इसके बाद हम सबको पहले से ज्यादा सख्त और लंबे कोरोना के लिए तैयार रहना चाहिए. हालांकि ऐसा हुआ तो अर्थव्यवस्था फिर बेपटरी हो जाएगी. बेरोजगारी और महंगाई बढ़ेगी. सरकार को एक बार फिर कोरोना राहत पैकेज की घोषणा करनी पड़ेगी. गरीबों को मनरेगा की मजदूरी और सस्ता अनाज मिलता रहेगा पर मध्यम वर्ग का क्या होगा?
ये वे बहुसंख्यक लोग हैं जिनमें से अधिकांश को विगत एक साल से या तो वेतन नहीं मिला है या आधा अधूरा वेतन मिला है. छोटे दुकानदार और फेरीवाले हैं जिन्होंने कमाई से ज्यादा खर्च किया है. बच्चों की स्कूल फीस जमा की है, होम लोन की ईएमआई चुकाई है. परिवार का कोई सदस्य कोरोना संक्रमित हुआ तो उपचार के लिए कर्ज लिया या पत्नी के जेवर बेचे हैं.
इनमें वे सीनियर सिटीजन भी हैं जिनकी बचत पर मिलने वाला ब्याज कम हो गया है, पर चिकित्सा खर्च बढ़ा है. दुनिया के कई देशों ने अपने करदाताओं को कोरोना से लड़ने के लिए नगद राहत दी है. अमेरिका में सालाना 75 हजार डॉलर कमाने वाले व्यक्ति के बैंक खातों में सरकार 1200 डॉलर यानी करीब 90 हजार रुपए जमा कर रही है. हम अमेरिका जितने सम्पन्न नहीं है पर भारत सरकार को उन लोगों की चिंता तो करनी होगी जो सामान्य दिनों में अपनी कमाई का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार को देते हैं. अब दुर्दिनों में वे किसके आगे हाथ पसारें?