कोरोना का कहर और गिद्धों का महाभोज
By मनोज नाथ | Updated: April 22, 2021 16:23 IST2021-04-22T16:23:16+5:302021-04-22T16:23:16+5:30
हर धर्म में एक परादैहिक तत्त्व की अवधारणा है,आत्मा,रूह ,सोल ,स्पिरिट जो हमें पशुओं से अलग करता है। डार्विन के सिद्धांतों से बहुत पहले हमारे पूर्वजों को इस बात का पूरा इल्म था कि हमलोग पशु हैं, मनुष्यत्त्व (यदि मैं इस शब्द को तात्कालिक प्रयोजन के लिए गढ़ सकता) का आवरण बहुत ही झीना है जो विषम परिस्थितियों में तार तार हो जा सकता है।

कोरोना का कहर और गिद्धों का महाभोज
डेढ़ वर्ष से लगातार कोरोना जनित विपत्तियों का दंश झेलते झेलते मन बिलकुल रुग्ण सा हो गया है. मुझे अनिद्रा की बीमारी है। कोरोना के डर से कर्फ्यू, कर्फ्यू से स्तब्ध, भयभीत , शिशुवत निद्रा में सोया हुआ शहर, मेरे नींद से वंचित होने के अहसास को और गहरा देती है. लगता है कोरोना का डर कहीं बहुत गहरे पैठ गया है। लॉक डाउन कुत्तों के लिए तो नहीं था परन्तु उन्होंने भी इस पर स्वेच्छा से अमल करना शुरू कर दिया। कहीं दूर दूर तक किसी सम्भ्रान्त या आवारा कुत्ते के भौंकने की आवाज़ भी नहीं आती। इस अभिशप्त शहर में रात्रि के तीन बजे , कदाचित मैं अकेला ,निद्रा अनिद्रा के बीच की स्थिति में अपनी किताबें ,उलट पुलट रहा हूँ। कभी ट्विटर , तो कभी यूट्यूब खंगाल रहा हूँ, शायद विचलित, चिंतित ,चंचल, मन को कोई ठाँव मिले। पर जहाज से उड़े पंछी को कोई आश्रय नहीं मिलता। 'दिल्ली में कर्फ्यू है ' से अचानक याद आया गजानन माधव मुक्तिबोध ने गगन में कर्फ्यू में ही यह खोज की थी कि “चांद का है टेढ़ा मुँह!!भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!गगन में करफ़्यू है. " सोचा चलकर देखूं तो सही धरती पर गाहे बगाहे कर्फ्यू ने चाँद का मुँह कही सीधा तो नहीं कर दिया। चाँद भी कही छिपकर बैठा था , मास्क से छनकर मद्धिम सी रोशनी गवाह थी कि चाँद अभी डूबा नहीं है.
फिर सोचा इस कोरोना की चिंता में बौराए मन का होम्योपैथिक इलाज करता हूँ। महामारी में महामारी पर लिखी किताबें पढ़ता हूँ। मेरे पास लम्बी फेहरिस्त हैं ऐसी किताबों की, लेकिन कागज पर नहीं। मेरी किताबों का जखीरा मेरे घर पटना में है , निपट अकेला उन से दूर मैं दिल्ली में, इसलिए डिजिटल अवतार में ही उनका मनन करता हूँ. किताब हो तो कागज पर वर्ना नहीं। पर ऐसे समय में डिजिटल अवतार में Decameron by Boccaccio, The Journal of Plague Years by Daniel Defoe , Love In Times Of Cholera Marquez, Pale Horse ,Pale Rider Katherine Anne Porter, Plague by Albert Camus and Blindness by Jose Saramago उपलब्ध हैं . इन सभी किताबों को मैंने पढ़ा हुआ था, कुछ को तो कई बार फिर भी उन को देखा और Blindness को पुनः आद्योपांत पढ़ डाला।
ट्विटर पर पसरी सांप्रदायिकता
" तुम्हारी मृत्यु के अपराध में, क़ैद हूँ । क़ैदख़ाने में
दरवाज़ा नहीं है;
दरवाज़ा इस ग्लोब में कभी नहीं था ।
आओ, पहले हम बहस करें कि क्यों नहीं था दरवाज़ा
पहले हम तय करें कि यह क़ैदख़ाना किसने बनाया
फ़ैसला करें कि दरवाज़े क्या होते हैं
इतनी ईंटें कहाँ से आईं
लोहे की सलाख़ें कौन ले आया
दीवारें धीरे-धीरे ऊपर उठती गई किस तरह ?
आवश्यक है तर्क-वितर्क
फिर, यह कि वाक्य-व्यवस्था हो, विषय हो
सिद्धान्त बनें, अपवाद गढ़े जाएँ, व्याख्याएँ, भाष्य,
फिर, निर्णय हो
कि पहले क्यों नहीं थे दरवाज़े
और, अब क्यों नहीं हैं ?"
प्रजातंत्र में बहस
कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से 'निकलने को बिलबिलाने लगी।
राष्ट्रकवि दिनकर ने महाभारत युद्ध में संभावित रक्तपात के मद्देनज़र लिखा था , " सौभाग्य मनुज के फूटेंगे, बायस शृगाल सुख लूटेंगे। " कोरोना मानव मात्र लिए दुर्भाग्य का सन्देश है लेकिन हमलोग रोज़ चीन की उत्तरोत्तर समृद्धि के समाचार पढ़ते हैं। देश के नामचीन उद्योगपतियों, पूंजीपतियों की संपत्ति में खरबों रुपये का इज़ाफ़ा हो गया. इस अकाल बेला में जमाखोरी और रेमडीसीवीर जैसे प्राणरक्षक दवाओं तथा ऑक्सीजन सिलिंडरो की जमाखोरी का धंधा खूब तेज़ी से चल रहा है. पटना में एक पति -शोक से विक्षिप्त पत्नी ने कोरोना संक्रमण से मृत पति की चिता पर रखे जाने से पहले कम से कम उसको चेहरा दिखने की गुजारिश की। हरिश्चंद्र ने इसी कर्तव्व्य के निर्वहन के क्रम में अपनी पत्नी को भी कोई रियायत नहीं बक्शी थी लिहाज़ा डोम राजा एक अनजान औरत के साथ क्यों ऐसा करें.? 10 हजार रुपये में मुँह दिखाई हुई। लाश दूसरे की निकली, पति पी एम सी एच के बेड पर था.
कोरोना जाँच में फर्जीवाड़ा
अमरीका सरे आम इराक में घातक अस्त्रों जखीरा रखने के आरोप में तहस नहस कर डालता है, लाखों लोगों को मौत के घात उतार डालता है, असंख्य निर्दोष लोगों को आतंकवादी करार कर अकथनीय यातनाये देता है, लेकिन आज तक उन अस्त्रों का कोई प्रमाण नहीं मिला। लेकिन अमरीका तो अमरीका ठहरा . इस भेड़िये को भेड़िया न कहने का साहस ,तरह तरह के कशीदे गढ़ने को मज़बूर करता है जिससे इसकी दरिंदगी पर पर्दा डाला जा सके. लेकिन फिर मैं अपनी ही रौ में बह गया ,दर्द देशवासी दे रहे हैं मैं गाली विदेशियों को दे गया .
ट्विटर पर एक अन्य ह्रदय विदारक क्लिप: रो रो कर महिला बयान कर रही है , छह घण्टे से एक बेड की इंतज़ार में एम्बुलेंस में पति को लेकर हूँ. अम्बुलेंस का ऑक्सीजन खतम हो गया और पति ने दम तोड़ दिया। कट टू " अस्पतालों के आगे एम्बुलेंस की लम्बी कतारें , हर एम्बुलेंस में एक रुग्ण व्यक्ति, उसके साथ अधीर , व्यग्र परिजन ,एक बेड खाली होने की प्रतीक्षा में। किसे परवाह बेड कैसे खाली हुआ , पहले दाखिल रोगी जिया या मर गया , जब अपने जान पर बनती है तो दूसरे के जीने मरने की चिंता कहाँ सताती है? अनायास तिरने लगती है मानस पटल पर, भूख और बीमारी से पीड़ित, सुदूर अफ्रीका में एक मरणासन्न शिशु के निष्प्राण हो जाने की प्रतीक्षा में बैठा हुआ एकाग्र चित्त गिद्ध । यह फोटो पुरस्कृत हुआ, कुछ समय के लिये आत्मरत, आत्मकेंद्रित संपन्न समाज के कुछ संवेदनशील तबकों को तनिक उद्वेलित भी कर गया। मामला कुछ दिनों बहुत चर्चा में रहा। परन्तु फ़ोटो लेने के लिए साक्षी भाव से सब कुछ देखने के अपने पैशाचिक कृत्य की ग्लानि फोटोग्राफर ने आत्महत्या कर ली. उसकी आत्मा जीवित थी ,जाग्रत थी अतएव उसने उस ने शरीर के परित्याग में मुक्ति का मार्ग ढूँढा।
हर धर्म में एक परादैहिक तत्त्व की अवधारणा है,आत्मा,रूह ,सोल ,स्पिरिट जो हमें पशुओं से अलग करता है। डार्विन के सिद्धांतों से बहुत पहले हमारे पूर्वजों को इस बात का पूरा इल्म था कि हमलोग पशु हैं, मनुष्यत्त्व (यदि मैं इस शब्द को तात्कालिक प्रयोजन के लिए गढ़ सकता) का आवरण बहुत ही झीना है जो विषम परिस्थितियों में तार तार हो जा सकता है।
धर्म का यह एक परम दायित्त्व है कि मनुष्य के स्वाभाविक पशुवत व्यवहार पर नियंत्रण रखने के लिए उसे एक स्वतःपूरित एवं तर्क संगत मिथक की आवश्यकता होती है. यह आवशयकता ईश्वर के अविष्कार की जननी होती है. ईश्वरों का उत्पादन हर युग में मनुष्य कीआवश्यकता है. प्राकृतिक तत्त्वों को व्यक्तिनिष्ठ करके पूजने से लेकर सम्प्रति इहलौकिक सत्ता में काबिज व्यक्ति पर ईश्वरत्त्व सौंपने के प्रवृत्ति जारी है. बहरहाल निकले थे कहाँ जाने के लिए निकलें हैं कहाँ मालूम नहीं. इस स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनेस में कहाँ से कहाँ बहक गया ? क्रमशः


