Child sexual crimes: बाल यौन अपराधों के बढ़ते आंकड़े भयावह?
By राजेश बादल | Published: October 1, 2024 05:13 AM2024-10-01T05:13:19+5:302024-10-01T05:13:19+5:30
Child sexual crimes: गंभीर स्थिति को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि बच्चों से जुड़े अश्लील और यौन वीडियो को देखना, डाउनलोड या अपलोड करना तथा उसे प्रसारित करना सख्त अपराध है.
Child sexual crimes: भारतीय समाज की यह डरावनी तस्वीर है. आए दिन नाबालिगों के यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म की वारदातों ने हिला कर रख दिया है. किसी एक प्रदेश या इलाके की बात नहीं, बल्कि समूचे देश में इस तरह के अपराधों के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं. पिछले सप्ताह हिंदी समाचारपत्रों में आई खबरें चौंकाती हैं. साढ़े तीन सौ के आसपास इस श्रेणी के समाचारों ने स्थान पाया है. अफसोस कि ज्यादातर मामले पांच से दस वर्ष के मासूमों के साथ उजागर हुए हैं. अधिकतर मामलों में परिचितों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों पर इन करतूतों का आरोप लगा है.
शर्मनाक तो यह है कि करीबी लोगों के ऐसा करने पर हमारे सामाजिक ताने-बाने को जो चोट पहुंचती है, उसकी कभी भरपाई नहीं हो पाती. बीते दिनों इस गंभीर स्थिति को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि बच्चों से जुड़े अश्लील और यौन वीडियो को देखना, डाउनलोड या अपलोड करना तथा उसे प्रसारित करना सख्त अपराध है.
उसने देश के दो उच्च न्यायालयों के फैसलों को पलट दिया था. पहले केरल हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा था कि कोई एक व्यक्ति अपने फोन या कम्प्यूटर में अश्लील सामग्री रखता या देखता है तो यह अपराध नहीं है बशर्ते वह इसे प्रसारित नहीं करे और उसका उपयोग आपराधिक कृत्यों में नहीं हो. केरल के इस निर्णय के आधार पर तमिलनाडु के मद्रास हाईकोर्ट ने भी ऐसा ही निर्णय सुना दिया.
इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय की यह व्यवस्था सामने आई. जाहिर है कि किसी के फोन में अश्लील सामग्री हो तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह भविष्य में उसका दुरुपयोग नहीं करेगा. इसलिए आला अदालत का यह निर्णय यकीनन स्वागत योग्य तो है, लेकिन सवाल यह है कि यदि अपराधी इंटरनेट सुविधा का लाभ लेते हुए वारदात के वक्त ही कोई पोर्न साइट या वीडियो देखता हो तो उसे कैसे रोका जाएगा?
न्यायालय इंटरनेट पर ऐसे कंटेंट के ऊपर पाबंदी कैसे लगा सकता है? कुछ समय से भारत में बच्चों और नाबालिग लड़कियों के साथ यौन अपराधों की संख्या तेजी से बढ़ी है. राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि देश में औसतन हर घंटे 18 बच्चों के साथ अपराध होते हैं. पिछले बरस की तुलना में यह नौ फीसदी अधिक है.
यह तो तब है, जब बड़ी संख्या में इस श्रेणी के अपराधों की जानकारी पुलिस थानों तक पहुंच ही नहीं पाती. घर-परिवार के लोग बदनामी के डर से पुलिस तक नहीं जाते. दूसरी खास बात यह है कि पुलिस ने भी बीते दशकों में अपनी साख गिराई है. पीड़ित यदि यह सोचने लगे कि पुलिस में जाने से न्याय का रास्ता नहीं खुलता और न ही अपराधियों के खौफ से मुकाबले के लिए उन्हें संरक्षण मिलता है तो क्या होगा.
यदि पीड़ित को उल्टे पुलिस ही तंग करने लग जाए तो वह पुलिस स्टेशन की तरफ क्यों मुंह करेगा? एक बात यह भी है कि न्याय तब मिलता है जब पीड़ित बच्चे या लड़की जवान हो चुके होते हैं और अपनी गृहस्थी की नींव रखने जा रहे होते हैं तो उस हाल में सामाजिक अपयश की स्थिति बन जाती है. बीते दिनों अजमेर यौन मामले में यही हुआ.
जिन लड़कियों के साथ अत्याचार हुआ, वे फैसला आने तक बूढ़ी हो चुकी थीं और छुप-छुप कर अदालत आती थीं. उन्होंने अपने घर में किसी को अपने साथ दुष्कर्म की जानकारी नहीं दी थी. यदि वे ऐसा करतीं तो उनकी जिंदगी बरबाद हो जाती. कह सकते हैं कि आजादी के बाद 77 साल में हमने एक ऐसा समाज रचा है, जो आज भी हकीकत से भागता है, ऐसी व्यवस्था बनाई है, जो पीड़ित को वक्त पर इंसाफ नहीं दिलाती. जैसे जैसे साक्षरता का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है, हम मध्ययुगीन बर्बरता के नित नए नमूने प्रस्तुत करते जा रहे हैं.
इसके मद्देनजर भारतीय संसद से सर्वोच्च न्यायालय की यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि सरकार नाबालिगों के यौन उत्पीड़न पर अपराधियों के प्रति और सख्त रवैया अपनाए. मुझे याद है कि जब मोबाइल पर इंटरनेट सुविधा का दौर नहीं आया था तो उपग्रह के जरिये टेलीविजन चैनल देखे जाते थे. घरों में निजी तौर पर डिस्क लगाकर पोर्न चैनल की फ्रीक्वेंसी पर सारी अश्लील सामग्री देख सकते थे.
उसे रिकॉर्ड कर सकते थे और उसे दूसरों को भी दिखा सकते थे. उपग्रह-संप्रेषण के चलते संसार का कोई भी चैनल कहीं भी देखा जा सकता था. उन दिनों भारत में कुछ परदेसी चैनल आधी रात के बाद पोर्न फिल्में दिखाना शुरू कर देते थे. उनमें कोई सेंसर नहीं होता था. बच्चे और बुजुर्ग उसकी आवाज बंद करके अपने-अपने कमरों में यह अश्लील फिल्में देखते थे.
हम लोगों ने तब भारी विरोध किया. मीडिया तथा समाज के अन्य वर्गों के उग्र विरोध के चलते सरकार जागी. उन दिनों एनडीए सरकार सत्ता में थी और सुषमा स्वराज सूचना प्रसारण मंत्री का पद संभाल रही थीं. उन्होंने अपने मंत्रालय से इसकी जांच कराई और उन सारे चैनलों पर बंदिश लगा दी गई. इसके बाद ही संसद में पॉक्सो कानून 2000 में अस्तित्व में आया.
हालांकि उन दिनों ऐसे अपराधों की संख्या सीमित थी इसलिए चाइल्ड पोर्नोग्राफी शब्द के इस्तेमाल से भी काफी अंकुश लग गया. पर, आज यह अश्लील कंटेंट टीवी स्क्रीन से मोबाइल स्क्रीन पर उतर आया है. इससे हमारी आने वाली नस्लें बरबाद हो रही हैं. यह बेहद गंभीर है.
आला अदालत ने इसीलिए सरकार से कहा है कि वह चाइल्ड पोर्नोग्राफी शब्द के स्थान पर चाइल्ड सेक्सुअली एब्यूसिव एंड एक्सप्लॉइटेटिव मटेरियल शब्द का उपयोग करे और बाकायदा इसे कानूनी परिभाषा में लाए, जिससे ऐसे अपराधियों को कठोरतम सजा मिल सके. विडंबना है कि यूरोपीय और पश्चिमी राष्ट्रों में सामाजिक खुलेपन और उन्मुक्त यौन आचरण के कारण वहां इसे बुरा नहीं माना जाता.
मैं कुछ समय पहले अमेरिका गया था. वहां बाजार में अश्लील फिल्में धड़ल्ले से बिक रही थीं, देह व्यापार के खुले अड्डे थे और अखबारों में सेक्स विज्ञापनों की भरमार थी. मैंने अपने कुछ व्याख्यानों में इस ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई खास असर नहीं पड़ा. मगर, हिंदुस्तान पश्चिम अथवा यूरोप नहीं है. उसे अपने परंपरागत सोच वाले समाज में अश्लीलता रोकने के लिए कुछ असाधारण उपाय खोजने ही पड़ेंगे.