भारत रत्न चौधरी चरण सिंह जयंतीः किसानों की बुलंद आवाज थे चौधरी चरण सिंह
By अरविंद कुमार | Updated: December 23, 2025 05:43 IST2025-12-23T05:43:07+5:302025-12-23T05:43:07+5:30
राजनीतिक जीवन का अहम हिस्सा कांग्रेस में बीता था और उसी दौरान किसानों के हित के कई काम उन्होंने किए थे.

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आज 23 दिसंबर को भारत रत्नचौधरी चरण सिंह की जयंती है, जो देश भर में किसान दिवस के रूप में मनाई जाती है. चौधरी चरण सिंह का पूरा राजनीतिक जीवन किसानों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा. उनके साथ कितनी विराट किसान शक्ति थी, इसका आकलन 23 दिसंबर, 1978 को दिल्ली के बोट क्लब पर हो गया था जब दिल्ली किसानों से भर गई थी. आज भी संसद या विधानसभाओं में कृषि विषयों पर चर्चा होती है तो चौधरी साहब का जिक्र जरूर आता है. चौधरी साहब के राजनीतिक जीवन पर महात्मा गांधी की छाप थी. राजनीति में वे सरदार पटेल के अनुयायी थे.
नेहरूजी को भी वे अपना नेता मानते थे पर उनके कई विचारों से वे असहमत थे. उनके राजनीतिक जीवन का अहम हिस्सा कांग्रेस में बीता था और उसी दौरान किसानों के हित के कई काम उन्होंने किए थे. पर 1967 में कांग्रेस को चुनौती देकर वे उत्तर प्रदेश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे. 1969 में किसानों के दम पर ही उन्होंने एक नया दल भारतीय क्रांति दल बनाया था,
जिसका आधार 1977 में जनता पार्टी के गठन में काम आया था. भारत में किसानों के सवालों पर उनका मौलिक और व्यावहारिक चिंतन रहा है. किसानों को अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना चौधरी साहब ने सिखाया. और किसानों की राजनीतिक शक्ति का आभास भी उन्होंने ही कराया था. चौधरी साहब नहीं चाहते थे कि किसान जाति, धर्म और क्षेत्रीयता में बंटें.
23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में किसान परिवार में जन्मे चौधरी साहब के जीवन का बड़ा हिस्सा गांव-देहात में बीता. खेत-खलिहान में बचपन बीता. उच्च शिक्षा हासिल कर आजादी के आंदोलन में वे कूदे तभी किसान उनके एजेंडे का हिस्सा बने. 1937 में मेरठ दक्षिण पश्चिम सीट से वे पहली बार विधायक बने तो 1977 तक लगातार इस सीट पर विजयी होते रहे.
पहली बार में ही उनकी सूझबूझ देख कर 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने उनको अपना संसदीय सचिव बनाया था. चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश में मंडी कानून बनाने की पहल 1938 में की थी, पर इसे जमीन पर उतारने में ढाई दशक लग गए. 1939 में ऋण निर्मोचन विधेयक पास करा कर चौधरी साहब ने लाखों गरीब किसानों को कर्जे से मुक्ति दिलाई.
वे कृषि उत्पादन मंडी विधेयक के प्रबल पैरोकार थे और इस मसले पर बिल भी उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश किया था. उन्होंने 31 मार्च और 1 अप्रैल, 1932 को एक राष्ट्रीय अखबार में इस विषय पर अनूठा लेख लिखा, जिसकी देश भर में चर्चा हुई. उनके सुझावों को कई सरकारों ने क्रियान्वित किया. इसमें पहला राज्य पंजाब था.
1952 में उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन कानून, चकबंदी कानून और 1954 में भूमि संरक्षण कानून में उनका अनूठा योगदान था. चौधरी साहब ने इस कानून में यह सुनिश्चित कराया कि जमींदारी उन्मूलन के बाद ऐसा न हो कि सामंती शक्तियां फिर से ग्रामीण समाज को गिरफ्त में ले लें.
चौधरी साहब चाहते थे कि सरकारी नौकरियों में सभी जातियों के किसानों के बच्चों को 50 प्रतिशत आरक्षण मिले. और खेती और ग्रामीण विकास से संबंधित सभी विभागों में केवल ग्रामीण समझ वाले लोगों को नौकरी मिले. उत्तर प्रदेश से ही चौधरी साहब राष्ट्रीय नेता बन गए थे. 19 माह की अवधि छोड़ दें तो चौधरी साहब 1951 से 1967 के बीच लगातार उत्तर प्रदेश सरकार में कई अहम विभागों के मंत्री रहे.
किसान हित में कई प्रभावी कानून खुद उन्होंने ड्राफ्ट करके बनाए थे. उनकी ही सोच थी कि जनता पार्टी ने चुनाव घोषणा पत्र में कृषि को सबसे अधिक प्राथमिकता दी. 1979 में राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना में उनकी सोच थी. कृषि उपजों की अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक उन्होंने हटवा दी और सीमित काल के लिए जब वे प्रधानमंत्री बने तो ग्रामीण पुनरुत्थान मंत्रालय स्थापित कराया.
चौधरी साहब ने खुद अपना मतदाता वर्ग तैयार किया था और उसे अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया. ग्रामीण पृष्ठभूमि के कई नेताओं को उन्होंने आगे बढ़ाया. उनकी राजनीति किसानों के दिए चंदे से चलती थी. उनके दल को बैल से खेती करने वाला किसान एक रुपया और ट्रैक्टर वाला किसान 11 रुपए चंदा दे सकता है, ये दर उन्होंने तय की थी.
चौधरी साहब ने बड़े उद्योगपतियों से कभी चंदा नहीं लिया और यह दिशानिर्देश भी बना दिया था कि अगर उनके किसी सांसद-विधायक पर यह साबित हो गया कि उसने पूंजीपतियों से चंदा लिया है तो उसे तत्काल पार्टी छोड़नी पड़ेगी. चौधरी साहब ने किसानों से जुड़े सवालों पर कई पुस्तकें लिखीं और किसान जागरण के लिए ही 13 अक्तूबर 1979 से असली भारत साप्ताहिक अखबार शुरू किया था.
किसानों की दिक्कतों पर चौधरी साहब की बहुत बारीक और गहरी नजर थी. उनका मत था कि छह सदस्यों वाले एक परिवार को साल भर में केवल एक टन खाद्यान्न की जरूरत होती है. इसमें ठीक निवेश और तकनीकों का इस्तेमाल हो तो आधे एकड़ की दोहरी फसल से हासिल हो सकती है. छोटे किसान जो पैदा करते हैं उससे इतनी बचत नहीं कर पाते कि आवश्यक निवेश कर सकें.
छोटा किसान भी पर्याप्त उत्पादन कर सकता है अगर वह बचत कर पाए और भूमि में निवेश कर सके. छोटे पैमाने की खेती, उच्च उत्पादकता और कम कीमत तीनों एक साथ नहीं चल सकती. लिहाजा जरूरी है कि सरकार किसानों को लाभकारी कीमतें अदा करे, ताकि वे बचत कर सकें और भूमि में निवेश कर सकें.
उनकी मान्यता थी कि 27.5 एकड़ से अधिक और 2.5 एकड़ से कम भूमि का सही उपयोग नहीं हो सकता, लिहाजा एक परिवार के लिए जोत उतनी होनी चाहिए जो लाभकारी हो सके. आजादी के बाद खेती की तस्वीर बदली है. खेती-बाड़ी अपने कंधों पर करीब 140 करोड़ जनशक्ति और 51.2 करोड़ से अधिक पशुधन का बोझ संभाले हुए जूझ रही है.
पर समय के साथ किसानों की दशा अपेक्षित तौर पर अच्छी नहीं है और गांव और शहर के बीच अंतराल गहराता जा रहा है. आज जब खेती के सवाल उठते हैं और समाधान की बात आती है तो चौधरी चरण सिंह स्वाभाविक तौर पर याद आते हैं.