ब्लॉगः बदलते परिवेश में बाजार, राजनीति और उपयोगितावाद ने सबकी मानसिकता अर्थकरी शिक्षा पर केंद्रित कर दिया
By गिरीश्वर मिश्र | Published: September 5, 2021 03:12 PM2021-09-05T15:12:19+5:302021-09-05T15:12:19+5:30
शिक्षा की संस्था स्वायत्त रखी गई जहां गुरु और शिक्षक बिना किसी दबाव के स्वाधीन रूप में ज्ञान-सृजन और उसके विस्तार का कार्य करते रहें.
समाज के लिए जरूरी कारोबार चलाने के लिए प्रशिक्षित लोगों (मानव संसाधन!) की जरूरत पड़ती है. इस तरह अपनी उपादेयता के चलते शिक्षा संस्था समाज और राज्य की अहम जिम्मेदारी बन गई कि वह इनके भरण-पोषण की व्यवस्था करे.
पर शिक्षा की संस्था स्वायत्त रखी गई जहां गुरु और शिक्षक बिना किसी दबाव के स्वाधीन रूप में ज्ञान-सृजन और उसके विस्तार का कार्य करते रहें. इस तरह शिक्षा-कार्य की परिधि का निर्धारण गुरु जनों के विवेक द्वारा होता था जिन्हें परंपरा और समकालीन परिस्थिति दोनों का ज्ञान होता था. वे शिक्षा देते हुए समाज के भविष्य को संवारने का दायित्व निभाने के संकल्प के साथ अपना कार्य करते थे.
रक्त संबंधियों से अलग हट कर गुरु -शिष्य जितना गहरा रिश्ता कोई और नहीं होता है. कहना न होगा कि प्राथमिक विद्यालय से ले कर विश्वविद्यालयों तक पूरे देश में पसरे शैक्षणिक परिसरों में वैकल्पिक या समानांतर संस्कृति पलती-पनपती है या कि उसकी संभावना बनी रहती है जो समाज के निर्माण के लिए एक बड़ा अवसर होता है.
इस अवसर का सदुपयोग करना या फिर उसके प्रति तटस्थ बने रहना अथवा दुरुपयोग करना समाज की चेतना पर निर्भर करता है. साथ ही इस संस्कृति का दारोमदार अध्यापकों पर ही निर्भर करता है. प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर तो इसकी बड़ी अहमियत है जब कि अध्यापकों की उपलब्धता और सेवा शर्तो को लेकर बड़ी मुश्किलें बनी हुई हैं.
आज के बदलते परिवेश में बाजार, राजनीति और उपयोगितावाद ने सबकी मानसिकता अर्थकरी शिक्षा पर केंद्रित कर दिया है. शिक्षा ज्ञान के लिए उसी हद तक उपयोगी मानी जाती है जितनी मात्ना वह अच्छी तनख्वाह या पैकेज दिला पाती है. शिक्षा संस्थाओं के विज्ञापन भी इसकी जानकारी के साथ प्रसारित लिए जाते हैं.
आज की नई पौध के लिए यही प्रमुख सरोकार हो चुका है. अध्यापक भी चकाचौंध की आंधी में अछूते नहीं रहे और कमाई करने के उपक्र मों की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं और उसकी इच्छा-आकांक्षा दौड़ रही है. ज्ञानार्जन, अध्यवसाय, शास्त्न-चर्चा और सृजनात्मकता के लिए उत्साह कम होता जा रहा है. उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट जिस तरह दर्ज हो रही है वह चिंता का विषय है.
अध्यापन को दूसरे व्यवसायों के तर्ज पर रखते हुए रुपया पैसा कमाना ही लक्ष्य होता जा रहा है. अध्यापक की छवि और साख में कमी आई है. अब साहित्यिक चोरी, शॉर्ट कट से सीखना-सिखाना और गैरअकादमिक कार्यो के प्रति रुझान बढ़ रहा है. पढ़ने-पढ़ाने का सुख और ज्ञान का व्यसन एक दुर्लभ अनुभव होता जा रहा है. इसकी जगह शैक्षिक परिसर राजनीति के अखाड़े बनकर अपनी रही सही श्री भी खोते जा रहे हैं.