विश्वसनीयता कायम रखने की चुनौती
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: June 13, 2025 08:25 IST2025-06-13T07:23:58+5:302025-06-13T08:25:56+5:30
सवाल यह है कि हमारे मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता की चिंता क्यों नहीं है? सवाल सिर्फ गलत खबरों को चलाने का नहीं है

विश्वसनीयता कायम रखने की चुनौती
बहुत पुरानी बात है. सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ता था मैं. किसी शब्द को लेकर एक मित्र से बहस हो गई. मुद्दा शब्द के हिज्जों का था. मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने ‘ब्रह्मास्त्र’ चलाते हुए कहा था, मैंने अखबार में पढ़ा है, यह शब्द ऐसे ही लिखा जाता है. और बहस समाप्त हो गई थी. मेरे तर्क को सुनकर मित्र ने हथियार डाल दिए थे. वह जीत मेरी नहीं, अखबार की थी. उस समय हमारे दिमागों में यह बात बिठा दी गई थी कि अखबार की बात पर विश्वास करना चाहिए.
वास्तव में यह सारा मुद्दा अखबार या मीडिया की विश्वसनीयता का था. उस समय के मीडिया ने, यानी अखबारों ने अपने पाठकों का विश्वास अर्जित किया था. अखबार में लिखने वाला यह जानता था कि पाठक उसकी बात पर भरोसा करता है और इसलिए वह यह भी मानता था कि इस भरोसे को बनाए रखना उसके अस्तित्व तथा सार्थकता की शर्त है. अखबार पढ़ने वाला भी इस विश्वास के साथ पढ़ता था कि अखबार में लिखा है, इसलिए यह सही होगा.
पारस्परिक भरोसे का यह रिश्ता आज भी खत्म नहीं हुआ है. अखबार पढ़ने वाला या टीवी पर समाचार देखने-सुनने वाला आज भी यह मानना चाहता है कि वह जो पढ़ रहा या देख रहा है, वह सही है. पर दुर्भाग्य से, विश्वास का यह रिश्ता आज बहुत कमजोर पड़ गया है.
मीडिया की दुनिया में आजकल एक शब्द बहुत तेजी से चल रहा है- टीआरपी. इस शब्द का मतलब है टेलीविजन रेटिंग पॉइंट. किसी कार्यक्रम या चैनल की लोकप्रियता को मापने के लिए यह एक माप है. टीआरपी जितनी ज्यादा होगी, चैनल को उतना ही ज्यादा व्यावसायिक लाभ होगा. अधिकाधिक लाभ कमाने की एक दौड़ चल रही है मीडिया में, मीडिया की सारी विश्वसनीयता इसी प्रतियोगिता का शिकार बनती जा रही है.
पिछले एक दशक में टीवी समाचारों में स्वतंत्रता की कमी के आरोप अक्सर लगते रहे हैं. यह भी कहा जाता रहा है कि समाचार चैनल सरकारी बातों को दुहराते रहते हैं. सवाल यह है कि हमारे मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता की चिंता क्यों नहीं है? सवाल सिर्फ गलत खबरों को चलाने का नहीं है, सवाल मीडिया की विश्वसनीयता के लगातार कमजोर होते जाने का है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार की सुरक्षा का तकाजा है कि मीडिया से जुड़े व्यक्ति और वर्ग इस दिशा में जागरूक हों. सोशल मीडिया में अक्सर इस संदर्भ में सुगबुगाहट होती रहती है, आवश्यकता इस सुगबुगाहट को ताकतवर बनाने की है.
टीआरपी की चिंता में मीडिया अपने होने का औचित्य खोता जा रहा है. यह गंभीर चिंता का विषय है.