ब्लॉग: भाषा की सामर्थ्य है राष्ट्र की सामर्थ्य

By गिरीश्वर मिश्र | Published: January 10, 2024 11:42 AM2024-01-10T11:42:42+5:302024-01-10T11:47:45+5:30

भाषा हमारी अभिव्यक्ति का सबसे समर्थ माध्यम है। इसकी सहायता से ज्ञान और संस्कृति के निर्माण, संरक्षण, संचार और अगली पीढ़ी तक हस्तांतरण का कार्य सुगमता से हो पाता है।

Blog: Strength of language is strength of nation | ब्लॉग: भाषा की सामर्थ्य है राष्ट्र की सामर्थ्य

ब्लॉग: भाषा की सामर्थ्य है राष्ट्र की सामर्थ्य

Highlightsभाषा हमारी अभिव्यक्ति का सबसे समर्थ माध्यम है, इसकी सहायता से ज्ञान का निर्माण होता हैज्ञान के साथ भाषा का रिश्ता इतना गहन है कि उसके बिना सर्जनात्मकता की बात ही बेमानी हो जाती हैभाषा के सहारे मनुष्य अपने सीमित देश-काल की परिधि का अतिक्रमण कर पाता है

भाषा हमारी अभिव्यक्ति का सबसे समर्थ माध्यम है। इसकी सहायता से ज्ञान और संस्कृति के निर्माण, संरक्षण, संचार और अगली पीढ़ी तक हस्तांतरण का कार्य सुगमता से हो पाता है। ज्ञान के साथ भाषा का रिश्ता इतना गहन और व्यापक है कि उसके बिना चिंतन और सर्जनात्मकता की बात ही बेमानी हो जाती है। भाषा के सहारे मनुष्य अपने सीमित देश-काल की परिधि का अतिक्रमण कर पाता है।

एक महत्वपूर्ण अर्थ में भाषा न केवल मनुष्य की सत्ता का विस्तार करती है बल्कि उसकी परिभाषा बन जाती है। भाषा यथार्थ की सीमा गढ़ती है। विभिन्न समुदाय उसी से जुड़ कर अपनी पहचान बनाने लगते हैं। यही कारण है कि भाषा को औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था में विशेष स्थान प्राप्त है। वह पहले ज्ञान पाने के माध्यम के रूप में अर्जित होती है और बाद में ज्ञान का आधार बन जाती है। यह क्रम अटूट चलता रहता है। ज्ञान को भाषा में ही संजोया जाता है और जैसा कि भर्तृहरि कहते हैं - सर्वं शब्देन भासते - भाषा के आलोक में ही दुनिया दिखती है।

आज विद्यमान या जीवित भाषाओं की विविधताएं इतनी हैं कि उनका वर्गीकरण भाषा वैज्ञानिकों के लिए एक जटिल समस्या है। भारत इस दृष्टि से अद्भुत है कि इसमें हजार से ज्यादा संख्या में भाषाओं की उपस्थिति है और इनमें बहुतेरी भाषाएं ऐसी भी हैं जो सिर्फ वाचिक स्तर पर ही संचालित हैं और उनकी लिपि ही नहीं है। उन्हें सुना जा सकता है पर देखा नहीं जा सकता।

भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में प्रबलता के आधार पर चुन कर 22 भाषाएं उल्लिखित हैं जिनमें हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है। वह व्यावहारिक धरातल पर अनेक क्षेत्रों में प्रयुक्त हो कर भारत की सम्पर्क भाषा की भूमिका अदा कर रही है। वस्तुतः वे सभी देश जहां मातृभाषा शिक्षा का माध्यम है, प्रगति और सृजनात्मकता की दृष्टि से समृद्ध हैं।

भारत ने अंग्रेजों की नीति को लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार किया और उसी के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी के वर्चस्व को बरकरार रखा। ऐसे में भारतीय भाषाएं हाशिए पर जाती रहीं। सरकारी कामकाज मुख्य रूप से अंग्रेजी में ही चलता रहा और हिंदी सिर्फ अनुवाद की भाषा बनी रही। यह स्थिति प्रतिभा और परिश्रम के लिए चुनौती बन गई और विद्यार्थियों का बहुत सा समय अंग्रेजी को सीखने समझने में लगता रहा और मुख्य विषयों का अध्ययन हाशिए पर जाता रहा।

इन समस्याओं पर शिक्षा आयोगों द्वारा विचार तो होता रहा परंतु व्यावहारिक स्तर पर यथास्थितिवाद ही प्रभावी रहा। बहुत दिनों के बाद भारत सरकार की नई शिक्षा नीति ने विचार के उपरांत यह संकल्प प्रस्तावित किया है कि प्रारंभिक शिक्षा को मातृभाषा के माध्यम से ही दिया जाए। प्रावधान तो यह भी है कि ऊंची कक्षाओं में भी ऐसी ही व्यवस्था लागू करने का प्रयास हो। इसके साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा से भी शिक्षा को जोड़ने का संकल्प लिया गया है। इस दृष्टि से संस्कृत और अन्य प्राचीन भाषाओं के लिए शिक्षा में सम्माजनक स्थान सुरक्षित करने के लिए कहा गया है।

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