लाइव न्यूज़ :

महापुरुषों को राजनीतिक लाभ का मोहरा न बनाएं 

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Updated: October 25, 2018 20:30 IST

कुछ ही दिन पहले एक केंद्रीय मंत्नी का वीडियो वायरल हुआ था। उसमें उन्हें कहते हुए दिखाया गया था कि 2014 के चुनाव के वक्त उनकी पार्टी को इस बात का कोई भरोसा नहीं था कि वह चुनाव जीत भी सकती है, इसलिए यह रणनीति बनाई गई कि बड़े-बड़े वादे किए जाएं। पर संयोग से पार्टी चुनाव जीत गई और अब वे वादे सत्तारूढ़ दल की परेशानी का कारण बन गए हैं।

Open in App

-विश्वनाथ सचदेवअसंभव को संभव बनाने और झूठ को सच बताने की कला को राजनीति की एक परिभाषा के रूप में अक्सर समझा-समझाया जाता है। एक राजनीति प्रतीकों वाली होती है। इसमें राजनेता प्रतीकों के सहारे अपने चेहरे चमकाने और मतदाता को भरमाने की कोशिश करते हैं। अक्सर राजनेता एक झूठ को इतनी बार दुहराते हैं कि सच लगने लगे और अक्सर वादों की इतनी बरसात कर देते हैं नेतागण कि मतदाता को लगता है जैसे वे दावे कर रहे हैं। ये दावे इस तरह परोसे जाते हैं कि लगे जैसे उपलब्धियों की थालियां सजाकर सामने रख दी गई हों। इस राजनीति का एक चेहरा और भी है-दूसरों की लकीर को छोटा दिखाने वाला चेहरा। यह तरीका भी दावों और वादों की राजनीति जितना ही कारगर समझा जाता है। जैसे यह मान लिया जाता है कि लोग वादे भूल जाते हैं, वैसे ही राजनेता मानकर चलते हैं कि प्रतिद्वंद्धी राजनेताओं को छोटा दिखाकर या छोटा बनाकर वे जनता को भरमा सकते हैं।

कुछ ही दिन पहले एक केंद्रीय मंत्नी का वीडियो वायरल हुआ था। उसमें उन्हें कहते हुए दिखाया गया था कि 2014 के चुनाव के वक्त उनकी पार्टी को इस बात का कोई भरोसा नहीं था कि वह चुनाव जीत भी सकती है, इसलिए यह रणनीति बनाई गई कि बड़े-बड़े वादे किए जाएं। पर संयोग से पार्टी चुनाव जीत गई और अब वे वादे सत्तारूढ़ दल की परेशानी का कारण बन गए हैं।

कुछ ऐसा ही किस्सा प्रतीकों वाली राजनीति का भी है। इस शैली की राजनीति में प्रतीक हड़पने की कोशिश की जाती है। ताजा उदाहरण नेताजी सुभाषचंद्र बोस का है। नेताजी देश के उन नेताओं में से थे जिन पर कभी कोई लांछन नहीं लगा। आज भले ही हमारे राजनेताओं के चलते ‘नेता’ शब्द अपनी इज्जत खो बैठा हो, पर जब सुभाषचंद्र बोस के नाम के साथ ‘नेताजी’ शब्द लगता है तो एक आदर-स्नेह का आत्मीय भाव स्वयमेव प्रकट हो जाता है। सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी रहे और एक बार तो उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए महात्मा गांधी के उम्मीदवार को हरा कर चुनाव जीता था।

यह बात भी उनकी महानता को दर्शाती है कि चुनाव जीतने के बाद भी उन्होंने गांधीजी समेत कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए पद से त्यागपत्न देकर कांग्रेस की बागडोर राजेंद्र प्रसाद को सौंप दी थी। लेकिन इस प्रकरण में कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू अथवा अन्य किसी नेता के बारे में नेताजी के मन में कहीं कोई कटुता या असम्मान की भावना पनपी। इतिहास साक्षी है कि जब उन्होंने आजाद हिंद सेना बनाई तो उसकी दो महत्वपूर्ण टुकड़ियों का नाम गांधी और नेहरू के नाम पर ही था और उस सेना ने जब कूच किया तो आगे गांधी और नेहरू के चित्न लेकर सैनिक चल रहे थे। यह कूच लाल किले पर तिरंगा फहराने के लिए था। 15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्न हुआ तो लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए देश के पहले प्रधानमंत्नी जवाहरलाल नेहरू ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को याद करते हुए कहा था कि सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों से कहा था कि यह कूच अब लाल किले पर तिरंगा फहराकर ही रुकेगा।

यह वर्ष नेताजी की आजाद हिंद फौज की स्थापना का 75 वां वर्ष है। इसलिए लाल किले पर उस फौज के स्थापना-दिवस पर तिरंगा फहराने का निर्णय प्रशंसनीय है। स्वतंत्न भारत के निर्माण की शपथ ली थी उन सिपाहियों ने। यह अवसर स्वतंत्न भारत को मजबूत बनाने की शपथ लेने का था। प्रधानमंत्नी के नेतृत्व में देश ने यह शपथ तो ली, लेकिन निश्चित रूप से यह अवसर कांग्रेस पार्टी अथवा नेहरू-गांधी परिवार को नीचा दिखाने की कोशिश का नहीं था। बहरहाल, राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित में शायद उदात्त भावनाओं के लिए जगह नहीं होती। अन्यथा इस पवित्न और महत्वपूर्ण अवसर पर प्रधानमंत्नी ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल, भीमराव आंबेडकर और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं के योगदान को भुलाने’ और ‘केवल एक परिवार को बाकी से ऊपर रखने’ की बात नहीं करते। यह अवसर समूचे राष्ट्र के कृतज्ञता-ज्ञापन का था, और प्रधानमंत्नी पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

उचित यही था कि इस अवसर का उपयोग वे चुनावी राजनीति की दृष्टि से न करते। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति दलीय स्वार्थो से ऊपर उठ ही नहीं पा रही। हर अवसर को राजनीतिक लाभ का अवसर बनाना राजनीति की विवशता हो सकती है, पर राष्ट्रीय-हितों का तकाजा है कि इस राजनीति से बचा जाए। सुभाष, पटेल और आंबेडकर जैसे नेता किसी पार्टी-विशेष तक सीमित नहीं होते। वे पूरे राष्ट्र के नेता हैं। पर हमारे राजनीतिक दल इन नेताओं का कद भी छोटा बनाने में लगे हैं। नेताओं की ऊंची मूर्तियों से नहीं, नेताओं के कृतित्व से प्रेरणा लेकर ही एक बेहतर राष्ट्र के लक्ष्यों तक पहुंचा जा सकता है। ‘इवेंट मैनेजमेंट’ और ‘जुमलों’ के सहारों से चलाई जाने वाली राजनीति से यह तो लग सकता है कि हम कुछ आगे बढ़े हैं, पर वस्तुत: ये बैसाखियां हैं, हमारे पैरों की कमजोरी का प्रचार ही करती हैं। पता नहीं कब समझेंगे हमारे राजनेता यह बात।

(विश्वनाथ सचदेव स्तंभकार हैं)

टॅग्स :राजनीतिक किस्से
Open in App

संबंधित खबरें

विश्वरोबोट मंत्री : नेताओं पर विस्थापन का संकट !

पूजा पाठथाईलैंड की राजनीति में उथल-पुथल: महाराज प्रसून कुलश्रेष्ठ की ज्योतिषीय भविष्यवाणी हुई सच?

भारतधर्म-समाज की बढ़ती राजनीतिक ठेकेदारी

भारतहेमधर शर्मा का ब्लॉग: विपरीत मौसम और कठोर परिश्रम के बाद ही आता है वसंत

भारतविश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: आपराधिक तत्वों को राजनीति से रखें दूर

भारत अधिक खबरें

भारतजब वंदे मातरम् के 100 वर्ष हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था?, पीएम मोदी ने कहा-संविधान का गला घोंट दिया गया था, वीडियो

भारत‘अंग्रेजों ने बांटो और राज करो का रास्ता चुना’, लोकसभा में पीएम मोदी ने कहा-आजादी की लड़ाई, मातृभूमि को मुक्त कराने की जंग थी, वीडियो

भारतवंदे मातरम् के 150 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं और हम सभी ऐतिहासिक अवसर के साक्षी बन रहे हैं, लोकसभा में पीएम मोदी, वीडियो

भारतIndiGo Flight Cancellations: इंडिगो संकट, 7वें दिन 400 फ्लाइट कैंसिल, हालात से लाचार हजारों पैसेंजर, देखिए दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नई एयरपोर्ट हाल, वीडियो

भारतमेरे सम्मानित प्रदेश वासियों?, सीएम योगी लिखी चिट्ठी, क्या है इसमें खास?, पढ़िए