नितिन नबीन की सफलता की अनकही कहानी

By हरीश गुप्ता | Updated: December 31, 2025 05:52 IST2025-12-31T05:52:32+5:302025-12-31T05:52:32+5:30

पूरी प्रक्रिया के समन्वय और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को सौंपी थी.

BJP National President Nitin Naveen Shifts To Delhi untold success story bjp mla bihar patna blog harish gupta | नितिन नबीन की सफलता की अनकही कहानी

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Highlightsछत्तीसगढ़ से एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है.छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान शाह के अधीन काम किया था.अच्छे संबंध बने थे. ऐसा लगता है कि यह संबंध काम आया.

भाजपाई हलकों में इस बात को लेकर अटकलें तेज हैं कि नितिन नबीन जैसा अपेक्षाकृत कम जाना-पहचाना नेता अचानक पार्टी का नया कार्यकारी अध्यक्ष कैसे बन गया. दिल्ली में इस संबंध में कई तरह की बातें चल रही हैं. एक मत के अनुसार, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उपयुक्त विकल्प मांगे तो भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने नबीन का नाम चुना. तर्क सीधा था : नबीन बिहार में पैदा हुए और राज्य की राजनीतिक स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं. एक और अधिक दिलचस्प अफवाह यह है कि मोदी ने स्वयं विभिन्न राज्यों के भाजपा मंत्रियों की एक सूची मांगी थी, जिनकी आयु 45-50 वर्ष के बीच हो- ऐसे नेता जो प्रभावी हों, वैचारिक रूप से आरएसएस से जुड़े हों और बड़ी संगठनात्मक जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हों. इन परस्पर विरोधी बयानों के बीच, छत्तीसगढ़ से एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है.

पता चला है कि इस पूरी प्रक्रिया के समन्वय और क्रियान्वयन की जिम्मेदारी मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को सौंपी थी. इसका कारण स्पष्ट है. नितिन नबीन ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान शाह के अधीन काम किया था, जिसके दौरान उनके बीच अच्छे संबंध बने थे. ऐसा लगता है कि यह संबंध काम आया.

हाल ही में, शाह रायपुर गए और पटना में नबीन को व्यक्तिगत रूप से मिलने का संदेश भेजा. नबीन तुरंत रायपुर पहुंचे, जहां शाह के साथ उनकी मुलाकात एक विस्तृत और संवादात्मक बातचीत में तब्दील हो गई. कुछ समय बाद, शाह ने उन्हें नड्डा और भाजपा के महासचिव (संगठन) बीएल संतोष से मिलने के लिए कहा.

इसके बाद जो हुआ वह इतिहास बन चुका है. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह मोदी की पुरानी शैली है: चुपचाप उम्मीदवारों की जांच, कड़ा नियंत्रण और अंतिम निर्णय, जो चुने गए उम्मीदवार को भी हैरान कर देता है.

मायावती की बसपा का स्व-निर्मित पतन

इस वर्ष बसपा का पतन हुआ, जो 2007 में अपने चरम पर थी. बसपा केवल दलितों की पार्टी नहीं थी, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव लाने वाली पार्टी थी. उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिलने से मायावती सामाजिक न्याय की राजनीति का प्रतीक बन गईं, जो न केवल विरोध प्रदर्शन करती थीं, बल्कि सत्ता पर भी अपना दबदबा बना सकती थीं.

दो साल बाद, बसपा 21 लोकसभा सीटें जीतकर वोट शेयर के हिसाब से भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. तब से पार्टी का पतन लगातार जारी है - और यह पतन पार्टी के स्वयं के कारण हुआ है. मायावती की राजनीतिक अलगाव की जिद, गठबंधनों पर अविश्वास और उनकी केंद्रीकृत नेतृत्व संरचना ने धीरे-धीरे पार्टी को खोखला कर दिया.

प्रतिद्वंद्वी जहां गठबंधन की राजनीति में ढल गए, वहीं बसपा एक कठोर, शीर्ष-स्तरीय ढांचे में सिमट गई. कार्यकर्ता कम होते गए, द्वितीय श्रेणी का नेतृत्व गायब हो गया और संगठनात्मक गहराई ध्वस्त हो गई. मायावती बढ़ती बेचैनी के साथ देख रही हैं कि बसपा के 2024 में एक भी लोकसभा सीट न जीतने और उत्तर प्रदेश में उसका वोट शेयर घटकर मात्र 9.39 प्रतिशत रह जाने (जो 2019 में हासिल किए गए वोट शेयर के आधे से भी कम है) के बाद दलित मतदाताओं के बीच कांग्रेस की पकड़ मजबूत हो रही है. यहां तक कि भाजपा को भी बड़ी संख्या में दलित वोट मिलने लगे हैं.

लेकिन उत्तर प्रदेश में बसपा का मुख्य जाटव दलित वोट बैंक अभी भी काफी हद तक बरकरार है. हालांकि, ध्रुवीकृत और फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली में गठबंधन के बिना मिले वोट अब सीटों में तब्दील नहीं होते. 2024 के लोकसभा चुनावों ने इसे स्पष्ट कर दिया, 2.07 प्रतिशत वोट शेयर, एक भी सांसद नहीं और राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिकता का पतन. राज्यसभा में बसपा के अंतिम सदस्य का कार्यकाल भी जल्द ही समाप्त होने वाला है और पुनरुद्धार की कोई रणनीति नजर नहीं आ रही, ऐसे में बसपा अब संसदीय अस्तित्व के पतन के कगार पर है.

ओबीसी छात्रों के प्रदर्शन से योग्यता का मिथक टूटा

जाति आधारित आरक्षण से शैक्षणिक योग्यता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की धारणा राजनीति से नहीं, बल्कि ठोस आंकड़ों से गलत साबित हुई है. इस वर्ष के कक्षा 12वीं के बोर्ड परीक्षा परिणामों में एक अप्रत्याशित रुझान देखने को मिला है, जिसमें महाराष्ट्र, बंगाल, राजस्थान और झारखंड सहित कम से कम आठ राज्य स्कूल बोर्डों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के छात्रों ने सामान्य वर्ग के छात्रों को पीछे छोड़ दिया है. ये आंकड़े संयुक्त सीट आवंटन प्राधिकरण से प्राप्त हुए हैं, जो आईआईटी और एनआईटी में प्रवेश के लिए पात्रता निर्धारित करने हेतु स्कूल बोर्ड के अंकों का संकलन करता है.

इन संस्थानों में प्रवेश की एक शर्त बोर्ड के शीर्ष 20% में होना या कम से कम 75% अंक पाना है. प्राधिकरण के नवीनतम आंकड़ों में, सीबीएसई और भारतीय विद्यालय प्रमाणपत्र परीक्षा परिषद (सीआईएससीई) के साथ-साथ 22 राज्य बोर्डों को शामिल किया गया है, और यह दर्शाता है कि कई बोर्डों में गैर-क्रीमी लेयर ओबीसी छात्रों के शीर्ष 20 प्रतिशत के लिए कटऑफ स्कोर सामान्य श्रेणी के छात्रों की तुलना में अधिक था. नगालैंड बोर्ड के तहत भी, अनुसूचित जाति के छात्रों ने सामान्य वर्ग के छात्रों से बेहतर प्रदर्शन किया,

जबकि गोवा बोर्ड के तहत अनुसूचित जनजाति के छात्रों का प्रदर्शन सामान्य वर्ग के छात्रों के बराबर रहा. आरक्षण पर बहस समय-समय पर फिर से उठने के साथ, बोर्ड परीक्षा के ये रुझान उन लोगों के लिए एक शांत लेकिन शक्तिशाली जवाब साबित हो सकते हैं जो अब भी आरक्षण को उत्कृष्टता में बाधा मानते हैं.

अपने नेताओं से ही शर्मिंदगी झेलती कांग्रेस

जब कांग्रेस अपने स्थापना दिवस पर एकता और नए संकल्प को प्रदर्शित करने की कोशिश कर रही थी, तभी वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया. पार्टी की विरासत, संदेश और भविष्य की कार्ययोजना सुर्खियों में छाने के बजाय, सिंह के विवादास्पद बयानों ने ही सारी सुर्खियां बटोर लीं. समय इससे बुरा नहीं हो सकता था.

स्थापना दिवस समारोह में बाधा उत्पन्न हुई और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को आसानी से आलोचना करने का मौका मिल गया. कांग्रेस के लिए यह एक जानी-पहचानी कहानी थी. कुछ समय पहले भी शशि थरूर की सार्वजनिक टिप्पणियों ने पार्टी में इसी तरह की हलचल मचा दी थी. लेकिन कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई-सिर्फ जल्दबाजी में स्पष्टीकरण दिए गए और मामले को अनदेखा करने की सामूहिक कोशिश की गई. यह सिलसिला साफ तौर पर नजर आता है. वरिष्ठ नेता बिना सोचे-समझे बोलते हैं, सुर्खियां बनती हैं और पार्टी को शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है.

फिर भी  आला कमान बड़े नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने से हिचकिचाता नजर आता है, क्योंकि उसे आंतरिक विरोध या असहिष्णुता की छवि बनने का डर सताता है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कांग्रेस को बार-बार एक ही समस्या का सामना करना पड़ रहा है:

गति पैदा करने के लिए तय किए गए मौके बार-बार खुद की गलतियों से पैदा हुए विवादों से ढक जाते हैं. दिग्विजय सिंह शायद औपचारिक कार्रवाई से बच जाएं, लेकिन नुकसान तो हो ही चुका है. पार्टी की स्थापना का जश्न मनाने के लिए तय किए गए दिन, कांग्रेस एक बार फिर एजेंडा तय करने के बजाय खुद की सफाई देने में लगी हुई पाई गई.

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