इन शहीदों की यादों से भी छेड़खानी कर डाली पाकिस्तान ने, कर दिया नेस्तनाबूद!
By मोहित सिंह | Published: June 6, 2018 09:22 AM2018-06-06T09:22:41+5:302018-06-06T09:22:41+5:30
23 मार्च 1931 भारत के इतिहास का एक ऐसा काला दिन जिसने हमसे हमारे तीन सपूतों को छीन लिया था| 23 मार्च 1931 को ही शहीदे आजम भगतसिंह, शहीद सुखदेव और राजगुरु को एक साथ फांसी के तख्त पर लटका दिया गया था| इन शहीदों का ये बलिदान बेकार तो नहीं गया लेकिन भारत को आजादी के साथ ही बंटवारे के रूप में एक कभी ना भरने वाला ज़ख्म ज़रूर दे गया|
जब - जब इतिहास में 23 मार्च 1931 का ज़िक्र होगा तो अंग्रेजों के छल - कपट की भी बातें कही जायेंगी| कैसे अंग्रेज शासन ने जनता के आक्रोश से डरकर एक दिन पहले ही देश के इन सपूतों को फांसी की सजा दे दी थी, कैसे इनके मृत शरीर को आनन फानन में नदी में फेंक दिया गया|
देश के बंटवारे ने हमसे इन तीनों शहीदों की यादें भी छीन ली हैं| जिस जगह पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ाया था वो जगह आज पाकिस्तान में है| फांसी के तख़्त वाली जगह को चौराहा और लाहौर सेंट्रल जेल को तोड़ कर एक नई बिल्डिंग बना दी गयी है|
साल 1961 में लाहौर सेंट्रल जेल को ध्वस्त करके बिल्डिंग का निर्माण किया गया और उस जगह को एक रिहायशी कॉलोनी के तर्ज पर विकसित कर दिया गया| जिस जगह पर तीनो सपूतों को फांसी दी गयी थी उस जगह पर आज एक चौराहा मौजूद है जिसका नाम शादमान चौक रखा गया था लेकिन पाकिस्तान के कई सामाजिक और राजनीतिक संगठन की मांग सुनकर मौजूदा सरकार ने इस जगह का नाम शादमान चौक से बदलकर भगतसिंह चौराहा रख दिया है| जिस जगह पर यह चौराहा मौजूद है वह कभी कैदियों को फांसी दी जाया करती थी|
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को लेकर जनता में इतना आक्रोश था कि डरकर अंग्रेज सरकार ने तय समय के एक दिन पहले ही उनको फांसी पर चढ़ा दिया| फांसी देने का दिन 24 मार्च घोषित किया गया था लेकिन सरकार ने बिना किसी पूर्व सूचना के 23 मार्च 1931 को ही शाम 7 बजकर 33 मिनट पर इन तीनों को फांसी पर लटका दिया| इतना ही नहीं डर का ऐसा आलम था कि इन तीनो के मृत शरीर को चुपके से जेल की पिछली दीवार तोड़ कर और ट्रक में भर कर सतलुज नदी के किनारे दाह संस्कार के लिए ले जाया गया| जब जनता को इस बात का पता चला तो भीड़ एकदम से उग्र हो गयी और सबके सब नदी की तरफ पहुंच गए|
भीड़ को गुस्से में आता देखकर, अंग्रेज अधजले शरीर को नदी में फेंककर भाग लिए और जनता ने बाद में कसूर जिले के हुसैनवाला गांव में उनका अंतिम संस्कार किया|
पाकिस्तान के ही फैसलाबाद जिले के लयालपुर जिले में स्थित है भगतसिंह का जीर्णशीर्ण घर जो उनके याद की आखिरी निशानी है और बिलकुल ही खात्मे के कगार पर है|