जश्न जब अराजकता उन्माद और अव्यवस्था में तब्दील हो जाए..!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: June 6, 2025 07:09 IST2025-06-06T07:08:34+5:302025-06-06T07:09:45+5:30

यदि ध्यान दिया होता और अंदाजा होता कि भीड़ उम्मीद से बहुत ज्यादा है तो स्टेडियम की ओर जाने वाली सड़कों को बाधित किया जा सकता था. लोगों को रोका जा सकता था.

Bengaluru When celebration turns into anarchy and chaos | जश्न जब अराजकता उन्माद और अव्यवस्था में तब्दील हो जाए..!

जश्न जब अराजकता उन्माद और अव्यवस्था में तब्दील हो जाए..!

बेंगलुरु में जो कुछ भी हुआ...बहुत बुरा हुआ. सवाल यह नहीं है कि कितने लोगों की मौत हुई, सवाल तो यह है कि इन मौतों के लिए जिम्मेदार किसे ठहराएं? क्या सरकार को, जो यह अंदाजा नहीं लगा पाई कि जश्न के लिए कितने लोग इकट्ठे हो सकते हैं या फिर क्रिकेट से इश्क करने वाले दीवानों को, जिन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि इस भीड़ में क्या वे अपने आप को संभाल पाएंगे? किसी एक को जिम्मेदार ठहराना नाइंसाफी होगी.

हकीकत यह है कि जिम्मेदार सभी हैं. जश्न जब उन्माद में बदल जाए, वह उन्माद अराजकता फैला दे और व्यवस्था करने वाले खुद अव्यवस्थित हो जाएं तो ऐसे हादसे होंगे ही. सरकार कह रही है कि उसे एक लाख लोगों के एकत्रित होने का अंदाजा तो था लेकिन भीड़ इससे दोगुनी-तिगुनी हो गई! यहां सवाल यह पैदा होता है कि जब स्टेडियम की तरफ भीड़ चली जा रही थी, तब भी क्या प्रशासन को अंदाजा नहीं हुआ या फिर प्रशासन ने इस दृष्टि से सोचा ही नहीं. दरअसल प्रशासन कहीं का भी हो, पुलिस कहीं की भी हो, उनका एक नजरिया विकसित हो चुका है कि उन्हें वीआईपी की सुरक्षा और सुविधा पर ध्यान देना है.

जनता जाए भाड़ में! कुछ अधिकारी इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन सामान्य चलन तो यही है! बेंगलुरु में भी यही हुआ होगा. प्रशासन ने ध्यान ही नहीं दिया कि कितने लोग एकत्रित होते जा रहे हैं.यदि ध्यान दिया होता और अंदाजा होता कि भीड़ उम्मीद से बहुत ज्यादा है तो स्टेडियम की ओर जाने वाली सड़कों को बाधित किया जा सकता था. लोगों को रोका जा सकता था.

प्रशासन को अंदाजा होना चाहिए था क्योंकि कोई टीम 18 साल के लंबे इंतजार के बाद पहली बार खिताब जीतती है तो वहां के लोगों और उस टीम के प्रशंसकों के भीतर जश्न का भाव तो स्वाभाविक रूप से पैदा होगा ही! इसलिए बेंगलुरु प्रशासन और पुलिस की असफलता यहां साफ तौर पर नजर आती है. दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात कि जब भीड़ बढ़ गई तो जश्न मनाते हुए उसका उन्मादी हो जाना भी स्वाभाविक है.

पुलिस के लिए यह बड़ी चुनौती है कि उन्मादी भीड़ को कैसे नियंत्रित किया जाए लेकिन उनकी ट्रेनिंग तो ऐसी होती ही होगी कि स्थिति को कैसे संभालें? फिर सवाल पैदा होता है कि लाठीचार्ज करने की जरूरत क्यों पड़ गई? जो युवा घायल हुए हैं, लाठियां उनके पैरों पर नहीं बल्कि सिर पर पड़ी हैं! भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कई बार बलप्रयोग जरूरी होता है लेकिन बलप्रयोग और लाठियों से पिटाई में बड़ा फर्क होता है. बेंगलुरु की घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं लेकिन ऐसी जांच का हश्र क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है.

देश में न जाने ऐसे कितने हादसे हो चुके हैं जब लोग भगदड़ में भीड़ के पैरों तले कुचल कर मारे गए लेकिन भगदड़ कैसे मची इसका पता ही नहीं चलता! और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जश्न के ऐसे मौकों पर लोग भी पुलिस की कहां सुनते हैं? आपको प्रयागराज महाकुंभ का वह दृश्य जरूर याद होगा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी लगातार उद्घोषणा कर रहे थे, चेतावनी दे रहे थे कि इस जगह पर न सोएं, यहां रुकना आपके लिए खतरनाक हो सकता है लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी.

कुछ ही घंटों के भीतर भीड़ का एक रेला आया और न जाने कितने लोगों को कुचल कर मौत की नींद सुला गया. ऐसी स्थितियां बताती हैं कि लोगों के भीतर की अधीरता और अराजकता मौत को अपने पास बुलाती है. आप रोज-रोज की जिंदगी में भी देखिए कि कहीं किसी जगह यदि ट्रैफिक जाम हो गया है तो लोग इधर-उधर से रास्ता तलाशते हुए आगे बढ़ने को उतावले होेते हैं और ट्रैफिक को बुरी तरह जाम कर देते हैं. यदि लोग निर्धारित लेन में चलें तो निश्चित रूप से हादसों से बचा जा सकता है.

लेकिन लोगों के पास धीरज नहीं है. बेंगलुरु में जब भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी तो जो लोग पीछे थे, क्या उन्हें नहीं लौट जाना चाहिए था? भीड़ के खतरों को उन्होंने महसूस क्यों नहीं किया? क्योंकि लोग महसूस नहीं करना चाहते हैं. वे यह मान कर चलते हैं कि दुर्घटना उनके साथ तो नहीं होगी! यह आत्मविश्वास न केवल खुद के लिए बल्कि दूसरों के लिए भी  घातक साबित होता है. जश्न जरूर मनाइए लेकिन मौत की कीमत पर नहीं! खासकर अपने बच्चों को भीड़तंत्र का हिस्सा बनने से बचने की शिक्षा जरूर दीजिए!

Web Title: Bengaluru When celebration turns into anarchy and chaos

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