Assembly Elections: सगे भाइयों को सत्ता, सौतेलों के समक्ष संकट, लोकसभा चुनाव के परिणामों में मिली सफलता के बाद...
By Amitabh Shrivastava | Published: December 7, 2024 05:16 AM2024-12-07T05:16:47+5:302024-12-07T05:16:47+5:30
Assembly Elections: बीते चुनावों में महाराष्ट्र में विपक्षी एकता महाविकास आघाड़ी के नाम पर बनाई गई, जिसमें राष्ट्रीय गठबंधन के दलों को हिस्सेदारी दी गई.
Assembly Elections: लोकसभा चुनाव के परिणामों में मिली सफलता के बाद यह तय था कि राष्ट्रीय विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का हर दल उत्साह में कुलांचे मारेगा, जिसका प्रभाव अगले चुनाव पर पड़ेगा. पहले हरियाणा चुनाव में झटका लगा और उसके बाद महाराष्ट्र में मुंह की खानी पड़ गई. जम्मू-कश्मीर और झारखंड के विधानसभा चुनाव के नतीजों का सारा श्रेय नेशनल कांफ्रेंस और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे क्षेत्रीय दल ले गए. बीते चुनावों में महाराष्ट्र में विपक्षी एकता महाविकास आघाड़ी के नाम पर बनाई गई, जिसमें राष्ट्रीय गठबंधन के दलों को हिस्सेदारी दी गई.
किंतु सभी की महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ चुकी थी कि किसी ने समझौते या सीमाओं का पालन न करते हुए स्वयं की शक्ति पर विश्वास किया, जिससे भीतरघात को तो जगह मिली ही, समग्र परिणाम भी उलट गए. यही भांपकर राज्य के सत्ताधारी गठबंधन ने आपसी सामंजस्य को बांधे रखने के हर संभव प्रयास किए. मतदाता से लेकर कार्यकर्ता तक, सहयोगी दल से लेकर परदे के पीछे काम करने वालों तक सभी को अस्तित्व की लड़ाई का बोध कराया, जिसका परिणाम सामने है. यह किसी के लिए चौंकाने वाला है तो किसी के लिए ऐतिहासिक स्थिति है.
आश्चर्यजनक स्थिति है कि विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद लगभग पंद्रह दिन बीतने के बाद राज्य के विपक्षी गठबंधन में पराजय की कोई समीक्षा नहीं हुई है. हालांकि चुनाव की जिम्मेदारी अनेक कंधों पर थी. इतने दिनों में पूरा ध्यान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन(ईवीएम) में गड़बड़ी से लेकर भविष्य में मत-पत्र से चुनाव कराने की मांग पर लगा है.
एक भी नेता इतना साहस नहीं जुटा रहा कि वह हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार ले. वह हार का ठीकरा अनबोली मशीन पर फोड़कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले रहा है. बात ईवीएम से वीवीपैट पर आ पहुंची है, जिससे कुछ समय तो इन्हीं की चर्चाओं में बीत जाएगा और बात आई-गई हो जाएगी. एक अंग्रेजी अखबार के पास उपलब्ध जानकारी से बने समाचार के अनुसार कांग्रेस को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिलने वाली सीटों का पहले से अंदाज था, जिससे आंतरिक रूप से वह अचंभित नहीं है. समस्या इतनी ही है कि इस सच्चाई को सार्वजनिक रूप से कैसे स्वीकार किया जाए.
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(शरद पवार गुट) को अंदाज था कि उसके नेता के नाम पर ही इस बार भी उसे मत मिल जाएंगे. मगर मतदाता ने चाचा की बजाय भतीजे को चुना. यही कुछ मानसिकता शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट की थी, जिसे मतदाता से निष्ठा के नाम पर मत मिलने की आशा थी. परंतु सत्ताधारियों ने विपक्ष की मजबूती और अपनी कमजोरी का हल मतदाता से सीधे संबंध के रूप निकाला और ‘भाऊ-बहन’ के नारे को इतना बुलंद किया कि स्थापित नेताओं के मत भी छिटक गए. आम चुनाव के बाद महाविकास आघाड़ी में निचले स्तर पर समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता थी, जो चुनाव तक भी ठीक नहीं हुआ.
नेतृत्व के स्तर पर गठजोड़ दिखता था, किंतु जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में पहला संघर्ष स्वयं प्रतिष्ठा से आरंभ होता था. यहां तक कि अनेक बार मंचों पर गठबंधन के दूसरे दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं दिया गया. इसके साथ ही तीनों दलों के मंच से दिए संदेश भी भिन्न थे. वहीं राज्य सरकार की योजनाओं पर आघात करना आसान नहीं था.
क्योंकि ‘लाड़ली बहन’ और ‘किसान सम्मान’ योजनाओं की रकम खातों में पहुंच चुकी थी. इसलिए थोड़ी-सी आलोचना भी महंगी साबित हो सकती थी. कुछ हद तक शुरुआती दौर में गड़बड़ी भी हुई, जिसने ‘सगे-सौतेले’ का खेल आरंभ किया. पूरे चुनाव प्रचार में सत्ता पक्ष ने उसे जोश के साथ चलाया और जोरदार सफलता पाई.
दरअसल विपक्षी गठबंधन लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) को मिले 26.18 प्रतिशत मत को कम आंकने की भूल कर बैठा और उसे यह भी अंदाज नहीं रहा कि गठबंधन में उसके साथ दो अन्य दल भी अपनी ताकत के अनुसार चुनाव में मत पाने में सफल रहे हैं. इस संख्या के आधार पर भविष्य में सीटों की संख्या में कभी भी बदलाव हो सकता है.
सिर्फ आवश्यकता मतदान को बढ़ाने की होगी. चूंकि आघाड़ी में निचले स्तर पर समन्वय का अभाव था, इसलिए बढ़े मतों का लाभ उसके खाते में जाना असंभव था. वही बात परिणामों ने कह दी. संसदीय चुनावों के बाद हरियाणा में आम आदमी पार्टी(आप) से गठबंधन न होना, उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की दूरी और दिल्ली के चुनावों के लिए पहले से ही आप की अलग-अलग लड़ने की तैयारी साफ कर रही है कि अब ‘इंडिया’ गठबंधन का संकट आगे बढ़ेगा. हर चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल से ताने सुनने ही पड़ते हैं.
आगे वहां भी आसान साथ संभव नहीं होगा. महाराष्ट्र में शिवसेना में अंदरूनी छटपटाहट है तो कांग्रेस का भी मुंह फूला हुआ है. फिलहाल यह संभव नहीं है कि खुलकर सामने आकर किसे दोष दिया जाए, किंतु भविष्य के चुनावों की रणनीति बनने के दौरान इन दबी-छिपी बातों का असर स्पष्ट दिखेगा.
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि राज्य का सत्ताधारी महागठबंधन परिस्थिति को देख और आक्रामक होगा. उसका प्रयास आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों को जीतकर राज्य की राजनीति पर दबदबा हासिल करने का होगा. वह लोकलुभावन योजनाओं से ‘सगा’ बनकर ‘सौतेले’ की परिभाषा को अधिक मजबूत करेगा.
उधर, महाआघाड़ी के समक्ष कम से कम राज्य में निचले स्तर तक एकजुट रहने की बड़ी चुनौती होगी. महागठबंधन में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अजित पवार गुट को छोड़ दिया जाए तो शिवसेना का शिंदे गुट भाजपा का स्वाभाविक साझेदार है. उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच कोई नयापन नहीं है. इसलिए पराजय के बाद महाविकास आघाड़ी को शायर गुलजार के शब्दों में समझना होगा-
वो मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन,
मुड़ के जो देखा तो वो और मेरे साथ न था
जेब फट जाए तो कुछ सिक्के भी खो जाते हैं.