मुफ्तखोरी की आदत लगाने के बजाय बेरोजगारों को काम दें?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: October 4, 2024 05:15 IST2024-10-04T05:14:09+5:302024-10-04T05:15:48+5:30
Assembly Elections: शुरुआत 1967 में तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में हुई थी, जब द्रमुक ने एक रुपए में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया था.

सांकेतिक फोटो
Assembly Elections: देश का यह दुर्भाग्य बनता जा रहा है कि चुनावों के नजदीक आते ही राजनीतिक दलों में जनता को मुफ्त की चीजें बांटने या उसके वादे करने की होड़ लग जाती है. जो दल सत्ता में होते हैं वे बांटना शुरू कर देते हैं और जो विपक्ष में होते हैं, वे वादे करते हैं कि सत्ता में आने पर सत्तारूढ़ दल से भी ज्यादा मुफ्त की चीजें प्रदान करेंगे. जिस भी राज्य का चुनाव नजदीक आने लगता है, वहां यह कवायद शुरू हो जाती है. कोई नगदी तो कोई सामान बांटता है या बांटने के वादे करता है. कोई मुफ्त बिजली देने की घोषणा करता है तो कोई कुछ और कोई भी नहीं सोचता कि मुफ्त का यह माल जनता के ही टैक्स से भरने वाले सरकारी खजाने से उड़ाया जाता है और इसका बुरा असर जनहितकारी योजनाओं पर पड़ता है. राजनीतिक दल आखिर हर हाथ को रोजगार दिलाने का वादा क्यों नहीं करते?
क्यों नहीं इस तरह की योजनाएं बनाई जातीं कि कोई भी बेकार न रहे? जो अपंग या असहाय हैं, बेशक उनकी मदद करना सरकार का फर्ज है लेकिन जो काम कर सकते हैं और चाहते भी हैं कि उन्हें काम मिले, उनको मुफ्तखोरी की आदत लगाने में किसी की भी भलाई नहीं है. हालांकि राजनीति में इस बुराई की जड़ें बहुत पहले से जमने लगी थीं.
शुरुआत 1967 में तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में हुई थी, जब द्रमुक ने एक रुपए में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया था. यह वादा ऐसे समय में किया गया था, जब देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था. इसके पहले वहां शुरू हुए हिंदी विरोधी अभियान और उसके बाद एक रुपए में चावल के इस वादे के दम पर द्रमुक ने तमिलनाडु से कांग्रेस का सफाया कर दिया था.
तब से आज तक यह सिलसिला चलता जा रहा है और तमिलनाडु से शुरू हुआ यह मर्ज धीरे-धीरे सभी राज्यों में फैल चुका है. अब मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे करने की सभी राजनीतिक दलों में होड़ लग गई है. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राजनीति में रेवड़ी कल्चर पर चिंता जता चुके हैं.
पिछले साल उन्होंने कहा था कि ‘गैर-जिम्मेदाराना वित्तीय और लोकलुभावन नीतियों के अल्पकालिक राजनीतिक परिणाम मिल सकते हैं, लेकिन लंबी अवधि में इसकी बड़ी सामाजिक और आर्थिक कीमत चुकानी पड़ सकती है.’ फिर भी सत्ता हासिल करने का लालच ऐसा है कि कोई भी राजनीतिक दल इस दलदल में गिरने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. इसलिए मतदाताओं को ही अब जागरूक होकर चेताना होगा कि राजनीतिक दल उन्हें बेवकूफ समझने की भूल न करें और देश व देशवासियों के जो दीर्घकालिक दृष्टि से हित में हो, वही काम करें.