विधानसभा चुनाव परिणामः जीत के लिए अभी एक और मौका है बाकी, आखिर क्यों हल्ला बोल रहे राहुल गांधी?
By Amitabh Shrivastava | Updated: June 14, 2025 05:13 IST2025-06-14T05:13:41+5:302025-06-14T05:13:41+5:30
स्थानीय निकायों में 29 महानगर पालिकाओं के साथ 248 नगर परिषदों, 34 जिला परिषदों में से 32 और 351 पंचायत समितियों में से 336 के चुनाव होंगे.

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विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद लगभग सात महीना बीतने और आम चुनाव का साल पूरा होने के बाद भी कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी महाराष्ट्र चुनाव में अपने दल की पराजय को पचा नहीं पा रहे हैं. उनके पास अपने तर्क हैं, जो कुछ तथ्यों के साथ वह सार्वजनिक मंचों से लेकर मीडिया के माध्यम से जनमानस के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं. उनका अनुमान और विचार दोनों ही है कि उन्हें लोकसभा चुनाव के समान ही विधानसभा चुनाव में विजय मिलनी चाहिए थी. हालांकि वह इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं कि आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और तत्कालीन मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विभाजित शिवसेना ने झटका खाकर प्रदेश के चुनाव को अस्तित्व से जोड़कर लड़ा. जिसमें उन्हें अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) का भी साथ मिला, जिनकी भी वह भविष्य की लड़ाई थी.
यदि आंकड़ों को मिलाकर देखा जाए तो सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को हुआ, क्योंकि वह अविभाजित और एकल अस्तित्व के साथ संघर्षरत थी. वहीं शिवसेना ने अपने दो अवतार और राकांपा ने अपने दो हिस्सों से लाभ कमाकर विधायकों की संख्या बढ़ाई. भले ही वे दल आमने-सामने की राजनीति कर रहे थे, लेकिन उनके मतदाता और नेता पुरानी पहचान रखते थे.
अब संकट कांग्रेस के सामने ही है, जो एक चुनाव में पराजय के गम में इतनी डूबी है कि वह राज्य के तीसरे चुनाव का अवसर भुनाने आगे नहीं आ रही है. जिससे कि पार्टी का जमीनी आधार मजबूत बन सके और अगले चुनावों की राह आसान बनाई जा सके. यह तय था कि राज्य में सत्ता की बागडोर संभालने के बाद किसी भी नई सरकार से स्थानीय निकायों के चुनावों पर सवाल-जवाब आरंभ होंगे.
अब धीरे-धीरे उनमें स्पष्टता आने लगी है और अनुमान यही है कि वे साल के अंत तक पूरे करा लिए जाएंगे. महाराष्ट्र में आखिरी बार स्थानीय निकाय चुनाव वर्ष 2018 में हुए थे. अधिकतर निकायों का कार्यकाल 2022-23 तक खत्म हो चुका है. स्थानीय निकायों में 29 महानगर पालिकाओं के साथ 248 नगर परिषदों, 34 जिला परिषदों में से 32 और 351 पंचायत समितियों में से 336 के चुनाव होंगे.
इनमें दो नवगठित महानगर पालिका जालना और इचलकरंजी भी शामिल होंगी. प्रशासनिक स्तर पर प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. प्रभाग रचना के आदेश जारी हो चुके हैं. इससे स्पष्ट है कि हर दल को निकट भविष्य में अपनी क्षमता दिखाने का तीसरा अवसर मिलने जा रहा है. ये चुनाव लोकतंत्र में प्राथमिक स्तर के चुनाव माने जाते हैं. इनमें जनमत से नेतृत्व तय होता है.
इसी से तैयार अनेक नेता उच्च स्तर तक पहुंचते हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी यदि विधानसभा चुनाव की पराजय का पोस्टमार्टम कर दुनिया को दिखा सकते हैं तो उनके दल को तीसरे चुनाव में अपनी ताकत दिखाकर अपने तथ्यों की पुष्टि और अंगुली उठाने वालों की संतुष्टि कर लेना चाहिए. जिस काम में उनके गठबंधन के ही शिवसेना (ठाकरे गुट) और राकांपा (शरद पवार) गुट जुट चुके हैं.
अनेक नेताओं के दौरे हो रहे हैं और कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें हो रही हैं. वहीं कांग्रेस के मोर्चे पर अभी भी सन्नाटा है. उधर, यदि विधानसभा चुनाव की पराजय पर कांग्रेस के प्रलाप को अच्छी तरह देख और सुन लिया जाए तो वह एकतरफा कहानी सुनाती दिखती है, जिसमें अचानक मतदाताओं और मतों के बढ़ने की बात बताई जाती है. उसे वह अस्वाभाविक-सी स्थिति मानकर चुनाव परिणामों पर सवाल उठाती है.
जिसका जवाब चुनाव आयोग समय-समय पर देता आ रहा है. किंतु पिछले चुनावों की इबारत को ठीक से पढ़ा जाए तो वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव से विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक मत परिवर्तन राकांपा अजित पवार के गुट के पक्ष में हुआ. उसे लोकसभा चुनाव में 3.6 प्रतिशत मत मिले थे, जो विधानसभा चुनाव में 9.1 प्रतिशत हो गए.
दूसरी ओर कांग्रेस के मत 17 प्रतिशत से 12.5 प्रतिशत पर आ गए. भाजपा के लोकसभा के 26.4 प्रतिशत मत 27 प्रतिशत पर और शिवसेना के शिंदे गुट के 13 प्रतिशत से घटकर 12.5 प्रतिशत पर आ गए. इसके साथ ही शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के मत 16.9 से 10 प्रतिशत पर पहुंच गए, जबकि राकांपा शरद पवार गुट के मत 10.3 प्रतिशत से बढ़कर 11.4 प्रतिशत पर पहुंच गए.
यानी कांग्रेस और शिवसेना ठाकरे गुट के 16.9 प्रतिशत मतों के नुकसान का सबसे बड़ा लाभ राकांपा के अजित पवार गुट और शरद पवार गुट को मिलाकर 7.5 प्रतिशत तक हुआ. बाकी मत अन्य दलों ने हासिल कर लिए. यदि वर्ष 2019 का विधानसभा चुनाव देखा जाए तो उस समय भाजपा को 26.1 प्रतिशत मत ही मिले थे.
शिवसेना को 16.6 और राकांपा को 16.9 प्रतिशत मत मिले थे. उस चुनाव में कांग्रेस को 16.1 प्रतिशत मत मिले थे. इस दृष्टिकोण से दोनों शिवसेना को मिलाकर देखा जाए तो वे 22.5 प्रतिशत, दोनों राकांपा मिलाकर 20.5 प्रतिशत और कांग्रेस घटकर 12.5 प्रतिशत पर आ पहुंची दिखती है. जिससे दो की लड़ाई में तीसरे का फायदा की बजाय नुकसान ही दिखता है.
बावजूद इसके चुनाव में धांधली को बताकर अपना दु:ख मिटाना कहां तक उचित माना जा सकता है. कांग्रेस नेता गांधी विपरीत परिस्थितियों में मनोबल बढ़ाने की बजाय पार्टी के नेताओं को तरह-तरह के घोड़ों की संज्ञा देकर उन्हें उपहास के पात्र बना रहे हैं. वास्तविकता यह भी है कि संगठन चरमरा चुका है. बड़े नेता किनारे बैठे हैं और पदाधिकारी प्रवक्ता की भूमिका से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
नई पौध आनी तो दूर, बची फौज के दु:ख-सुख का वाली कोई नहीं है. इस परिस्थिति में आवश्यकता नई शुरुआत, नए अवसरों और नए तरीकों के साथ सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की है. लोकतंत्र सभी को लगातार अवसर देता है. जिन्हें हताश होकर ठहरे रहने की बजाय समय पर सक्रियता दिखाकर पाया जा सकता है. सुप्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन के शब्दों में कहें तो -
जो मुर्झाई फिर कहां खिली,
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है,
जो बीत गई सो बात गई...!