राजेश बादल का ब्लॉगः एक्जिट पोल का दौर उतार-चढ़ाव भरा रहा है 

By राजेश बादल | Published: December 11, 2018 05:53 AM2018-12-11T05:53:55+5:302018-12-11T05:53:55+5:30

बयालीस साल के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि स्थानीय स्तर पर स्ट्रिंगर अपने सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और कारोबारी सरोकारों के चलते अक्सर निष्पक्ष राय नहीं दे पाते.

assembly election exit poll 2018: congress bjp fight | राजेश बादल का ब्लॉगः एक्जिट पोल का दौर उतार-चढ़ाव भरा रहा है 

राजेश बादल का ब्लॉगः एक्जिट पोल का दौर उतार-चढ़ाव भरा रहा है 

कुछ बरस पहले तक एक्जिट पोल बड़े कौतूहल से देखे जाते थे. दर्शक हैरान हो जाते थे. समझ नहीं आता था कि आखिर एक्जिट पोल करने वालों के पास कौन सी जादू की छड़ी है, जिसके घुमाते ही सवा सौ करोड़ की आबादी वाले मुल्क के नतीजों का सच सामने आ जाता है. कुछ चुनावों में तो करीब-करीब वही परिणाम आते रहे, जो एक्जिट पोल में बताए जाते थे. संभवत: 2004 के पहले तक यह स्थिति बनी रही. एक्जिट पोल संचालित करने वाली एजेंसियों की साख का ग्राफ सातवें आसमान पर रहा. 

अचानक घटनाक्रम बदला. इन एजेंसियों की प्रतिष्ठा को बट्टा लगा. ऐसा भी हुआ कि इस मतांत फैसले में जो संकेत दिए गए, वे परिणामों से एकदम उलट थे. लोग चौंक गए. यहां तक कहा जाने लगा कि एक्जिट पोल कराने वाली एजेंसियों को भी मैनेज   किया जाता है. अभी भी इस धारणा का पूरी तरह खंडन नहीं हुआ है. बड़ा सवाल है कि एक्जिट पोल का तिलिस्म टूटा क्यों? 

दरअसल यह काम करने वाली संस्थाओं की आर्थिक सेहत दस  पंद्रह बरस पहले तक बहुत अच्छी थी. लेकिन जब पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी का दौर आया तो टेलीविजन चैनलों तथा मीडिया घरानों पर भी उसका असर देखने को मिला था. एक्जिट पोल एजेंसियों की फीस मीडिया - मालिकों को फिजूलखर्च लगने लगी. ऐसे में दो स्थितियां बनीं. 

एक तो मीडिया घरानों ने अपने सर्वेक्षण कराने आरंभ कर दिए और दूसरा एक्जिट पोल एजेंसियों ने शुल्क भी कम कर दिए. नुकसान दोनों पक्षों को हुआ. चूंकि एजेंसियां कम बजट में सर्वेक्षण कराने के लिए मजबूर थीं इसलिए उन्होंने उसका आकार घटा दिया. उन्होंने इस बात को भी प्राथमिकता दी कि उनका सर्वेक्षक कम पैसे में अधिक से अधिक लोगों का फीडबैक कैसे ले सकता है. इससे गड़बड़ यह हुई कि विविधताओं से भरे भारतीय समाज के गुलदस्ते की समग्र तस्वीर एक्जिट पोल में नहीं आई. वह सभी जातियों, धर्मो और अनेक सामाजिक -आर्थिक आधारों में बंटे परिवारों से रायशुमारी नहीं कर सकीं. 

यह अजीब था कि मतदाता और उसके मिजाज को मीडिया-समूहों के रिपोर्टर-संपादक जातियों-उप जातियों, अगड़े, पिछड़े, गरीब-अमीर और मजहबों में बांटकर समझने की कोशिश करते थे. लेकिन एजेंसियां सौ फीसदी न्याय नहीं कर पाती थीं. इस कारण पर्दे पर बड़ी गड्डमड्ड तस्वीर दिखाई देती थी. कुछ ऐसी भी शिकायतें आईं कि एजेंसियों ने मुनाफे का मार्जिन बनाए रखने के लिए अपने सर्वे में उन लोगों के नाम शामिल कर दिए, जिनके पास उनकी टीम के सदस्य पहुंचे नहीं थे. इससे भी एजेंसियों की साख धूमिल हुई.
  
दूसरी ओर मीडिया घरानों का अपना सर्वेक्षण कराने का फैसला भी खतरे से खाली नहीं था. चैनलों ने एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल सर्वे अपनी रिसर्च टीम के भरोसे शुरू किए. इस टीम ने मैदानी दौरे नहीं किए, बल्कि अपने नेटवर्क का सहारा लिया. मसलन उनके प्रादेशिक ब्यूरो और उनके संवाददाताओं ने यह काम किया. बड़ी तादाद जिलों तथा तहसीलों में काम करने वाले स्ट्रिंगर्स की थी. इन लोगों पर एक्जिट पोल के लिए रायशुमारी का जिम्मा सौंपा गया. 

बयालीस साल के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि स्थानीय स्तर पर स्ट्रिंगर अपने सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और कारोबारी सरोकारों के चलते अक्सर निष्पक्ष राय नहीं दे पाते. उन्हें  वेतन तो मिलता नहीं इसलिए अपने परिवार को पालने के कुछ अन्य जतन करने होते हैं. एक्जिट पोल का सर्वे इसी चरण में झटका खा जाता है. 

इसके अलावा आज भी चैनलों के रिसर्च विभाग को सारे दुखों की दवा मान लिया गया है. रिसर्च टीम के सदस्य न तो इस तरह एक्जिट-ओपिनियन पोल के लिए प्रशिक्षित होते हैं और न उसकी  मेथेडोलॉजी जानते हैं. इसलिए एक्जिट पोल से उपजे अनेक सवालों का उत्तर नहीं मिलता. खेद है कि मीडिया पाठ्यक्रमों से भी इस तरह के सर्वेक्षण अनुपस्थित हैं. लोकसभा चुनाव में मीडिया घरानों ने इस मामले में सावधानी, जिम्मेदारी और संवेदनशीलता नहीं दिखाई तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति बन जाएगी.

सिर्फ एक उदाहरण से बात समझ में आ जाएगी. पांच राज्यों के एक्जिट पोल में छत्तीसगढ़ में कुछ चैनल कांग्रेस की बढ़त दिखा रहे हैं तो कुछ भाजपा को. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का अंतर सिर्फ 0.75 फीसदी था. लेकिन भाजपा को 49 और कांग्रेस को 39 स्थान मिले थे. इस बार एक्जिट पोल में कांग्रेस की वोट बढ़त चार से सात फीसदी अधिक दिखा रहे हैं और सीटों की बढ़त में या तो कांटे की टक्कर  बता रहे हैं या फिर कांग्रेस की सिर्फ दो-चार सीटों की बढ़त बताई जा रही है. यह संभव है? 

इस गणित का आधार समझ से परे है. इसके अलावा किसी भी एक्जिट पोल ने नोटा का रोल नहीं बताया. पिछली बार छत्तीसगढ़ में नोटा के वोट 3 फीसदी थे. इन वोटों ने दस - पंद्रह सीटों के परिणामों में उलटफेर कर दिया था. यह आश्चर्यजनक है. उन सीटों पर किस दल ने उम्मीदवार बदले और किसने सबक लिया. एक्जिट पोल इस तरह के अनेक सवालों पर चुप्पी साधे हुए है. हकीकत तो यह है कि इतनी बारीकी से ये सर्वेक्षण हुए ही नहीं. झीने पर्दे के आवरण में शर्माते - ङिाझकते एक्जिट पोल प्रस्तुत करने से कोई फायदा नहीं है. 

Web Title: assembly election exit poll 2018: congress bjp fight

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