आलोक मेहता का ब्लॉग: श्रमिकों पर ध्यान दिए बिना प्रगति नामुमकिन
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 19, 2020 09:04 AM2020-05-19T09:04:44+5:302020-05-19T09:04:44+5:30
भावना के इस मुद्दे से आगे बढ़कर व्यावहारिक आर्थिक दशा को भी समझा जाए. इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने अपने संसाधनों, खजाने आदि से सहायता, अनुदान, कर्ज इत्यादि देने की कोशिश की है.
‘अरे साहब हमें दिल बहलाने के लिए कर्मवीर मत कहिए. बीस बरस से तो आप भी दिल्ली में हमें देख रहे हैं ना और हमरा एक भाई मुंबई में आॅटो भी पच्चीस साल से चला रहा. हम तो अब भी प्रवासी कहला रहे हैं ना. और आपके पड़ोसी सिंह साहब भी तो बीस साल से यहीं जमे हैं.
उनको या उनके साथ वालों को भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय विदेश सेवा का दर्जा देकर कभी प्रवासी अधिकारी तो नहीं कहा गया. कितने मंत्री - सांसद बीसों बरस से यहीं घर बार जमाकर बैठे हैं. कभी सुना किसी नेता को दिल्ली में प्रवासी कहा गया?’ मेरे मोहल्ले के रिक्शा वाले सीताराम के इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था.
भावना के इस मुद्दे से आगे बढ़कर व्यावहारिक आर्थिक दशा को भी समझा जाए. इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने अपने संसाधनों, खजाने आदि से सहायता, अनुदान, कर्ज इत्यादि देने की कोशिश की है. योजना, कार्यक्रम के नाम समय-समय पर बदले हैं, लेकिन महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना का नाम नहीं बदला है. इसलिए मुझे भी अप्रैल 2007 में अपनी सप्ताहिक पत्रिका की एक रिपोर्ट का ध्यान आ गया.
पुरानी फाइल से रिपोर्ट देखी. इसी रिपोर्ट में आर्थिक विशेषज्ञों, अधिकारियों और मजदूरों से विस्तृत बातचीत, तथ्य लिखे गए थे. उसकी शुरु आत ही इस बात से है कि 2020 तक विकास दर बढ़ने के साथ बेरोजगारी बढ़ती जाएगी. उस वक्त भी प्रगति के साथ बेरोजगारी बढ़ रही थी. 2007 में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में तीन प्रतिशत लोग बेरोजगार हो गए थे. तब दस फुट गड्ढा खोदने पर ग्रामीण मजदूर को 14 रुपए 50 पैसे मिल रहे थे और लगभग एक दिन में एक सौ रुपए से पेट भरने लायक कुछ मिल जाता था.
तब सरकार विकास की गति 27 प्रतिशत बता रही थी. उस समय यह आकलन किया गया था कि इसी गति से विकास होते रहने पर 2020 में बेरोजगारी 30 प्रतिशत हो जाएगी. खासकर ग्रामीण क्षेत्रों और 18 से 30 वर्ष के आयुवर्ग में बेरोजगारी का संकट होगा.
अब महामारी और लॉकडाउन के दौर में घर-गांव लौटने वाले श्रमिक के लिए 203 रुपए की मजदूरी की घोषणा सुनकर कुछ अजीब सा लगा. यों अपने घर, खेत-खिलहान में उसे तात्कालिक राहत तो मिल जाएगी, लेकिन क्या उसे कुछ हफ्ते या कुछ महीने बाद फिर शहर लौटने, कारखाने की याद नहीं आने लगेगी?
ग्रामीण क्षेत्रों की हालत सुधारने के लिए सर्वाधिक ध्यान दिए बिना शहरों की प्रगति संभव नहीं होगी. दोनों स्थानों पर मजदूरी तो समान हो, बिजली, दाना-पानी, छत, न्यूनतम शिक्षा और चिकित्सा की सुविधातो हो.