अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: आलोचना, चेतावनी और सरकारी रवैया
By अभय कुमार दुबे | Updated: December 4, 2019 07:20 IST2019-12-04T07:20:22+5:302019-12-04T07:20:22+5:30
सरकार की प्रतिक्रिया यह है कि उसने संगठित क्षेत्र के लिए रियायतों की घोषणा की है, जिनका कुछ लाभ अवश्य होगा, लेकिन तुरंत नहीं. समझा जाता है कि यह फायदा अल्पावधि में न हो कर मध्यावधि में दिखाई पड़ेगा

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: आलोचना, चेतावनी और सरकारी रवैया
मनमोहन सिंह से तो उम्मीद थी कि वे ऐसा कहेंगे. पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री होने के नाते एक सार्वजनिक मंच से उन्हें ऐसा कहना ही चाहिए था. लेकिन, गृह मंत्री अमित शाह के सामने राहुल बजाज ने जो कहा, वह एक नई बात थी. एक उद्योगपति के नाते (जिसे सरकार के समर्थन और सहयोग की अक्सर जरूरत रहती है) उन्होंने जोखिम उठाया, और उनकी हिम्मत से सरकार थोड़ा ताज्जुब में पड़ गई. जो भी हो, सिंह और बजाज की टेक एक ही थी. उन्होंने अर्थव्यवस्था के संकट को सरकार की राजनीतिक और प्रशासनिक शैली से जोड़ दिया, और अलग-अलग ढंग से दिखाया कि अगर सरकार आलोचना की जुर्रत का जवाब संदेह करने, बदला लेने और दिमाग ठिकाने लगाने के रवैये से देगी तो आर्थिक संकट का निदान नहीं हो पाएगा. नतीजतन होगा यह कि अर्थव्यवस्था की समस्याओं को राजनीतिक घटनाक्रम से काट कर अलग रखने का सरकारी मंसूबा बहुत दिनों तक नहीं चल पाएगा. और जैसे ही ये दोनों आपस में मिले, वैसे ही एक मजबूत और प्रबल पार्टी, एक करिश्माई नेता और राष्ट्रवादी जन-गोलबंदी का औजार भी राजनीतिक ग्राफ की गिरावट को नहीं रोक पाएगा.
इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है. बहस केवल इस बात की है कि इस संकट की प्रकृति क्या है? क्या यह ‘स्लो डाउन’ यानी वृद्धि-दर की गिरावट है? या यह संकट गिरावट से भी कहीं आगे जा कर ‘रिसेशन’ यानी मंदी में बदल गया है? गिरावट का मतलब होता है पिछली वृद्धि-दर के मुकाबले तुलनात्मक रूप से कम रफ्तार से अर्थव्यवस्था का बढ़ना. मंदी का मतलब है वृद्धि-दर का नकारात्मक हो जाना, यानी शून्य से नीचे चले जाना. सरकार ने हाल ही में दावा किया है कि इस संकट को मंदी कहना ठीक नहीं है. लेकिन विख्यात अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने विस्तार से दलील दी है कि जिसे गिरावट कहा जा रहा है, वह दरअसल वृद्धि-दर का खत्म हो जाना है. अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र में पूरी आर्थिक गतिविधि को बांटते हुए दिखाया है कि संगठित क्षेत्र में आई असाधारण गिरावट को जैसे ही ‘फैक्टर-इन’ किया जाता है, वैसे ही दिखने लगता है कि चार या साढ़े चार फीसदी की कथित वृद्धि-दर का वजूद है ही नहीं. यह आंकड़ा केवल संगठित क्षेत्र का है, जो इतना इसलिए दिख रहा है कि कुल घरेलू उत्पाद नापने का आधार-वर्ष बदल दिया गया था.
अगर इसे पहले वाले आधार-वर्ष से नापा जाए तो वृद्धि-दर दो-ढाई फीसदी ही रह जाती है, और असंगठित क्षेत्र (जो आकार में संगठित क्षेत्र से बड़ा है) में कोई वृद्धि न होने के कारण यह ऋणात्मक होने के लिए मजबूर हो जाती है.
सरकार की प्रतिक्रिया यह है कि उसने संगठित क्षेत्र के लिए रियायतों की घोषणा की है, जिनका कुछ लाभ अवश्य होगा, लेकिन तुरंत नहीं. समझा जाता है कि यह फायदा अल्पावधि में न हो कर मध्यावधि में दिखाई पड़ेगा. मुश्किल यह है कि सरकार के पास असंगठित क्षेत्र को जीवन देने के लिए न कोई योजना है, और न ही कोई इरादा दिखाई पड़ रहा है. नोटबंदी और जीएसटी के कार्यान्वयन ने असंगठित क्षेत्र को गहरी हानि पहुंचाई है, और उसकी भरपाई करना सरकार के नीतिगत और रणनीतिक उद्देश्यों में नहीं दिखाई पड़ रहा है. प्रश्न यह है कि सरकार को कोई यह राय क्यों नहीं दे रहा है? जाहिर है कि कोई उद्योगपति सरकार को इस तरह की सलाह देने से रहा. यह काम तो अर्थशास्त्रियों और अन्य विशेषज्ञों का है. सरकार के पास एनआईटीआई आयोग है, उसकी अपनी आर्थिक सलाहकार परिषद है. इन संस्थाओं में बैठे लोग क्या कर रहे हैं? ऐसा लगता है कि वे सरकार को ऐसी कोई राय देने से परहेज करते हैं जो सरकार सुनना नहीं चाहती. वे केवल खुशनुमा बातें करते हैं, और प्रधानमंत्री को कोई अप्रिय संदेश नहीं देना चाहते. सुना यह भी गया है कि प्रधानमंत्री वैसे तो नीतिगत मसलों पर गहराई से
विचार करते हैं, लेकिन आर्थिक प्रश्नों पर देर तक दिमाग खपाने का माद्दा उनके पास नहीं है. वे जल्दी ही बोर हो जाते हैं. पहले वे इस प्रकार के चिंतन की जिम्मेदारी अरुण जेटली पर डाल कर छुट्टी पा लेते थे, लेकिन अब जेटली नहीं हैं और निर्मला सीतारमण अभी तक उस किस्म की योग्यता प्रदर्शित नहीं कर पाई हैं.
मनमोहन सिंह और राहुल बजाज की बातों में एक चेतावनी निहित है जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है. विधानसभा के चुनावों ने सरकार को हल्का सा चिंतित किया है, लेकिन बेचैन नहीं. सरकार चाहे तो देख सकती है कि आर्थिक संकट का असर वोटरों पर पड़ना शुरू हो गया है. अभी इस असर की अभिव्यक्तियां खामोशी की तरफ हैं. यदि असंगठित क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों ने दोबारा सिर नहीं उठाया, तो साल-छह महीने के भीतर ही यह असर तरह-तरह की आवाजों में बोलने लगेगा. दबे हुए संकट को धमाके के साथ सबके सामने आने के लिए एक ‘ट्रिगर पॉइंट’ की जरूरत होती है. यह विस्फोट बिंदु कुछ भी हो सकता है. प्याज की महंगाई, बेरोजगारी या कुछ और. अभी कुछ वक्त है, सरकार चाहे तो संभल सकती है.