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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: समाज को भी आना होगा किसानों के पक्ष में

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 15, 2020 11:52 IST

दिल्ली सहित अन्य नगरों में लोग हाथों में मोमबत्तियां लिए शाम को फेरियां लगाने लगें तो सरकार पर जबरदस्त दबाव बनेगा. विपक्ष को चाहिए कि वह आम लोगों की गोलबंदी करें.

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ठळक मुद्देकिसानों के आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि अन्य तबके भी उनके पक्ष में आएतीनों कृषि कानूनों का मकसद बहुत बड़े पैमाने पर खेती का कॉर्पोरेटीकरण करना है, इसके दूरगामी परिणाम होंगेमोदी सरकार ने वही कर दिखाया है, जो मनमोहन सिंह की सरकार चाह कर भी नहीं कर पाई थी

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का जमावड़ा एक गैरदलीय आंदोलन का प्रकरण है, जिसका तमाम विपक्षी दल खुशी से समर्थन कर रहे हैं. समाज के कुछ अन्य हिस्सों से भी समर्थन के स्वर उठे हैं. यह संतोष की बात तो है, लेकिन केवल मौखिक समर्थन से इस आंदोलन को कोई बहुत ज्यादा उछाल नहीं मिलने वाला. 

इस तरह का समर्थन मुख्यत: निष्क्रिय समर्थन होता है. चूंकि किसानों को यह आंदोलन बहुत दिनों तक चलाना होगा, इसलिए जरूरी यह है कि समाज के अन्य तबके भी उसके पक्ष में सड़क पर निकल कर आएं.

मसलन, कम्युनिस्ट पार्टियों के पास किसान सभाएं हैं जिनकी सदस्यता लाखों में है. वे जब दिल्ली में रैलियां करती हैं तो इनके जरिये मझोले और गरीब किसानों की गोलबंदी की जाती है. 

आंदोलन की सफलता के लिए शहरी मध्य वर्ग के समर्थन की भी जरूरत

अगर किसान सभाएं सक्रिय समर्थन पर उतर आएं तो इस आंदोलन को केवल पंजाब, केवल खुशहाल फार्मर और केवल जाट किसानों के दायरे में समेटने की सरकारी नीयत कम हो सकती है. इसी के साथ आंदोलन के इस मुकाम पर शहरी मध्य वर्ग का सक्रिय समर्थन भी अहम भूमिका निभा सकता है. 

अगर दिल्ली और अन्य नगरों में लोग हाथों में मोमबत्तियां लिए शाम को फेरियां लगाने लगें तो सरकार पर जबरदस्त दबाव बनेगा. दरअसल, यह काम विपक्षी दलों का है. उन्हें चाहिए कि वे अपने झंडों का इस्तेमाल स्थगित करके गैरदलीय नागरिक मंच गठित करके आंदोलन के पक्ष में आम लोगों की गोलबंदी करें. 

विपक्ष के लिए यह सुनहरा मौका है, लेकिन अभी तक वह इसका लाभ उठाने की सुचिंतित रणनीति नहीं बना पाया है.

किसी टिप्पणीकार ने कहा है कि यह आंदोलन आरपार की लड़ाई है. बात सही है, लेकिन इसका निहितार्थ केवल मोदी सरकार के विरोध के रूप में या अडानी-अंबानी के विरोध के रूप में ही समझना उचित नहीं है. ये तो आंदोलन के फौरी लक्ष्य हैं. 

कृषि बिलों के दूरगामी होंगे नतीजे

दरअसल, तीनों कृषि कानूनों का मकसद बहुत बड़े पैमाने पर खेती का कॉर्पोरेटीकरण करना है, जिसे कानूनों के समर्थक दूसरी हरित क्रांति की संज्ञा दे रहे हैं. इसके नतीजे दूरगामी होंगे. साठ के दशक में हुई पहली हरित क्रांति का नतीजा क्या निकला था? जिन्हें केवल अन्न का बढ़ा हुआ उत्पादन ही दिखाई पड़ता है, उन्हें सत्तर के सेंसस को भी देखना चाहिए. 

वहां उन्हें दिखेगा कि किस तरह हरित क्रांति के असर में छोटा किसान भूमिहीन होता गया और देहातों की आबादी उत्तरोत्तर रोजगार की तलाश में या तो हरित क्रांति के चंद केंद्रों (जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक) या फिर बड़े शहरों की तरफ जाने के लिए मजबूर हुई. 

खेती का कॉर्पोरेटीकरण धीरे-धीरे चल रही इस प्रक्रिया को अपने चरम पर पहुंचा देगा. इससे हिंदुस्तान की तस्वीर ही स्थायी रूप से बदल जाएगी.

अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की शिखर प्रतिनिधि शक्ति के रूप में विश्व बैंक यह मानता है कि भारत जैसे देशों में भूमि जैसा कीमती संसाधन अकुशल हाथों (छोटे-गरीब किसानों) में है. इसे वहां से निकाल कर कॉर्पोरेट के कुशल हाथों में पहुंचाना है, और साथ में एक-दो एकड़ के किसानों को सस्ते श्रम के रूप में शहरों की तरफ धकेलना है. 

मोदी सरकार ने वही किया जो मनमोहन सिंह की सरकार चाहती थी!

विश्व बैंक की रपटों में इस तरह का विेषण और अनुशंसाएं आसानी से देखने को मिल सकती हैं. ये रपटें भारत जैसे देशों की सरकारों को ऐसा न कर पाने के लिए फटकार भी लगाती हैं. सरकार चाहे मोदी की हो या कांग्रेस की, या किसी और पार्टी की- विश्व बैंक की यह सलाह मानने से इनकार करने की जुर्रत अभी तक किसी ने नहीं दिखाई है.

एक तरह से देखा जाए तो मोदी सरकार ने तीन कानून बना कर वह कर दिखाया है, जो मनमोहन सिंह की सरकार चाह कर भी नहीं कर पाई थी. कांग्रेस के घोषणापत्र में इसीलिए ये सब बातें लिखी हुई हैं, और इसीलिए भाजपा के मंत्री बार-बार कांग्रेस को याद दिलाते रहते हैं कि जिसकी वफादारी आप करना चाहते थे, उसी की वफादारी तो हम कर रहे हैं.

इस लिहाज से यह एक अच्छी बात है कि किसान संगठनों ने स्वयं को राजनीतिक दलों से दूर रखा है, खासकर कांग्रेस से. यह अलग बात है कि पार्टी-पॉलिटिक्स से किसी आंदोलन का ज्यादा दिनों तक दूर रह पाना मुश्किल ही होता है.  

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