डॉ. एस.एस. मंठा का ब्लॉगः स्नातकोत्तर शिक्षा पर दें विशेष ध्यान
By डॉ एसएस मंठा | Updated: October 29, 2019 14:33 IST2019-10-29T14:33:14+5:302019-10-29T14:33:14+5:30
नौकरियों की घटती संख्या और शोध कार्यो में कम होती रुचि के चलते स्नातकोत्तर पाठय़क्रम में प्रवेश लेने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है. इस वर्ष तो रिक्तियां 50 प्रतिशत से भी अधिक हो गई हैं. आईआईटी को अपने कट-ऑफ में कमी लानी पड़ी ताकि उसकी सीटें खाली न रह जाएं.

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देश की 23 आईआईटी में पोस्ट ग्रेजुएट पाठय़क्रम में कुल 12000 सीटें हैं. इसके अलावा 31 एनआईटी में 16000, ट्रिपल आईटी में 1000 और 300 से अधिक शासकीय अनुदानित संस्थानों में 20000 सीटें स्नातकोत्तर पाठय़क्रम के लिए हैं. इसके अलावा देश के 2000 निजी महाविद्यालयों में करीब दो लाख सीटें हैं. हालांकि निजी संस्थानों के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है क्योंकि वहां जरूरत के अनुसार सीटें कम-ज्यादा होती रहती हैं.
नौकरियों की घटती संख्या और शोध कार्यो में कम होती रुचि के चलते स्नातकोत्तर पाठय़क्रम में प्रवेश लेने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है. इस वर्ष तो रिक्तियां 50 प्रतिशत से भी अधिक हो गई हैं. आईआईटी को अपने कट-ऑफ में कमी लानी पड़ी ताकि उसकी सीटें खाली न रह जाएं. इस बारे में विशेषज्ञों ने चिंता भी व्यक्त की है, क्योंकि इससे गुणवत्ता में कमी आने का खतरा बढ़ जाता है.
आईआईटी में शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात 1:10 होना चाहिए, जबकि वर्तमान में यह 1:15 है. देश में शोध विषयक कार्यो के नजरिये से आईआईटी की कौंसिल ने एमटेक की फीस में भारी वृद्धि करते हुए इसे दो लाख रु. वार्षिक कर दिया है. जबकि वर्तमान में आईआईटी में एमटेक के लिए प्रति सत्र शुल्क पांच हजार से दस हजार रुपए के बीच ही है. इसी तरह अन्य संस्थानों में भी फीस में वृद्धि हुई है या वृद्धि किए जाने की तैयारी चल रही है. इसके मद्देनजर सरकार को आसानी से एजुकेशन लोन उपलब्ध कराने पर विचार करना चाहिए ताकि मेधावी और इच्छुक विद्यार्थी पैसे के अभाव में उच्च शिक्षा हासिल करने से वंचित न रह जाएं.
स्नातकोत्तर पाठय़क्रम में प्रवेश लेने के प्रति विद्यार्थियों की उदासीनता के और भी अन्य कारण हैं. एक समस्या पाठय़क्रम की है. सबकी काम करने की पद्धति अलग-अलग होती है इसलिए जरूरी नहीं कि कोई एक मानक पाठय़क्रम समान रूप से सबके लिए प्रभावकारी साबित हो. साथ ही प्राध्यापकों पर अध्यापन के अलावा रिसर्च का भी दबाव रहता है. हकीकत तो यह है कि अध्यापन और अनुसंधान कार्य दोनों ही पूर्णकालिक समय की मांग करते हैं. दूसरी तरफ यह भी सच है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. इसलिए दोनों के बीच संतुलन रखे जाने की आवश्यकता भी महसूस की जाती है.