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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: शिक्षा की भाषा और भाषा की शिक्षा पर देना होगा ध्यान

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: August 28, 2020 15:25 IST

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ठळक मुद्देशिक्षा क्षेत्र की जड़ता और उसकी सीमित उपलब्धियों को लेकर सरकारी और गैरसरकारी प्रतिवेदनों में बार-बार चिंता जताई गई है कई भद्र लोग भारतीय भाषाओं के साथ अजनबी बने रहने को ही अपना गुण मानते हैं.

जीवन व्यापार में भाषा की भूमिका सर्वविदित है. मनुष्य के कृत्रिम आविष्कारों में भाषा निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है. वह प्रतीक (अर्थात कुछ भिन्न का विकल्प या अनुवाद !) होने पर भी कितनी समर्थ और शक्तिशाली व्यवस्था है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो भाषा से अछूता हो. जागरण हो या स्वप्न, हम भाषा की दुनिया में ही जीते हैं. हमारी भावनाएं, हास-परिहास, पीड़ा की अभिव्यक्तियों और संवाद को संभव बनाते हुए भाषा सामाजिक जीवन को संयोजित करती है. उसी के माध्यम से हम दुनिया देखते भी हैं और रचते भी हैं.

भाषा की बेजोड़ सर्जनात्मक शक्ति साहित्य, कला और संस्कृति के अन्यान्य पक्षों में प्रतिबिम्बित होती है. इस तरह भाषा हमारे अस्तित्व की सीमाएं तय करती चलती है. विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के संकलन, संचार और प्रसार के लिए भाषा अपरिहार्य हो चुकी है. भाषा के आलोक से ही हम काल का भी अतिक्रमण कर पाते हैं और संस्कृति का प्रवाह बना रहता है. इसलिए यह अतिशयोक्ति नहीं है कि भाषा का वैभव ही असली वैभव और आभूषण है. वाक् की शक्ति को भारत में बहुत पहले ही पहचान लिया गया था और वेद के वाक्सूक्त में उसका बड़ा विस्तृत विवेचन मिलता है.

 शब्द की शक्ति को बड़ी बारीकी से समझा गया है और भाषा को लक्ष्य करके जो चिंतन परम्परा शुरू हुई वह पाणिनि के द्वारा व्यवस्थित हुई और आगे चल कर उसका बड़ा विस्तार हुआ. शिक्षा, व्याकरण, काव्य शास्त्र, नाट्य शास्त्र तथा तंत्र आदि में भाषा के प्रति व्यापक, गहन और प्रामाणिक अभिरुचि मिलती है. ध्वनि रूपों से गठित वर्णमाला में अक्षर (अर्थात जो अक्षय हो!) होते हैं और शब्द ब्रह्म की उपासना का विधान है. इन सबको देख कर यही लगता है कि भारतीय मनीषा भाषा को लेकर सदा से गंभीर रही है और इसी का परिणाम है कि सहस्राधिक वर्षों से होते रहे विदेशी आक्रांताओं के प्रहार के बावजूद यह ज्ञान राशि अभी भी जीवित है. इसकी उपादेयता और रक्षा को लेकर चिंता व्यक्त की जाती है, पर हमारी भाषा नीति और शिक्षा के आयोजन में अभी भी जरूरी संजीदगी नहीं आ सकी है.

इसका स्पष्ट कारण हमारी औपनिवेशिक मनोवृत्ति है जो आवरण का कार्य कर रही है और जिसे हम अकाट्य नियति मान बैठे हैं. इसका परिणाम यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी स्वाधीनता और स्वराज्य हमसे कोसों दूर है. भाषा और संस्कृति साथ-साथ चलते हैं. यदि सोच-विचार एक भाषा में करें और शेष जीवन दूसरी भाषा में जिएं तो भाषा और जीवन दोनों में ही प्रामाणिकता क्षतिग्रस्त होती जाएगी. दुर्भाग्य से आज यही घटित हो रहा है. दोफांके का जीवन जीने के लिए हम सब अभिशप्त हो चले हैं. ऐसे में एक विभाजित मन वाले संशयग्रस्त व्यक्तित्व की रचना होती है.

शिक्षा क्षेत्र की जड़ता और उसकी सीमित उपलब्धियों को लेकर सरकारी और गैरसरकारी प्रतिवेदनों में बार-बार चिंता जताई गई है और समस्या के विकराल होते जाने को लेकर उपज रहे आसन्न संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है. अब बच्चे अधिक संख्या में शिक्षालय में तो जाते हैं पर वहां टिकते नहीं हैं और जो टिकते भी हैं तो उनका सीखना बड़ा ही कमजोर हो रहा है (वे अपनी कक्षा के नीचे की कक्षा की योग्यता नहीं रखते). ऊपर से उनके लिए सीखने के लिए भारी-भरकम पाठ्यक्रम भी लाद दिया गया है जिसे ढोना (भौतिक और मानसिक दोनों ही तरह से!) भारी पड़ रहा है. यह सब एक खास भाषाई संदर्भ में हो रहा है. आज की स्थिति में अंग्रेजी भाषा नीचे से ऊपर शिक्षा के लिए मानक के रूप में प्रचलित और स्वीकृत है, जबकि हिंदी समेत अन्य भाषाएं दोयम दर्जे की हैं. यह मान लिया गया है कि सोच-विचार और ज्ञान-विज्ञान के लिए अंग्रेजी ही माता-पिता रूप में है और उत्तम शिक्षा उसी में दी जा सकती है.

अंग्रेजी के प्रति मोह उसे जीवन के अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा की कसौटी माने जाने के कारण है. कई भद्र लोग भारतीय भाषाओं के साथ अजनबी बने रहने को ही अपना गुण मानते हैं. इस स्थिति में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति विकर्षण या तटस्थता का भाव ही विकसित होता है. अंग्रेजी की व्यूह-रचना को देश-विदेश के अनेक स्रोतों से सहयोग और समर्थन मिलता है और भारतीय भाषाओं को परे धकेल दिया जाता है. अंग्रेजी सीखने और सिखाने की कक्षाओं और प्रशिक्षण के विज्ञापन हर शहर में मिलेंगे लेकिन भारतीय भाषाओं के प्रति वह ललक नहीं है.

एक अध्ययन विषय के रूप में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं को सीखने की व्यवस्था भिन्न प्रश्न है और विद्यार्थी की परिपक्वता के अनुसार इसकी व्यवस्था होनी चाहिए. स्कूल, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय - सभी स्तरों पर भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग हितकर होगा. शिक्षा के परिसर भाषिक बहुलता के स्वागत के लिए तत्पर होने चाहिए.

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