अरावली की पहाड़ियों को लेकर इतनी आशंका क्यों?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: December 23, 2025 05:43 IST2025-12-23T05:43:48+5:302025-12-23T05:43:48+5:30
पर्वतमाला के आसपास बसने वालों का कहना है कि यदि उत्खनन के लिए रास्ता खुल गया तो इससे पूरा पर्यावरण तबाह हो जाएगा. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव कह रहे हैं कि अरावली में उत्खनन पर सख्ती है और 90 प्रतिशत से ज्यादा इलाका अब भी पूरी तरह संरक्षित है.

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अरावली पर्वतमाला इन दिनों बेहद चर्चा में है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार के इस प्रस्ताव को मान लिया है कि जो पर्वत या पर्वतों का समूह कम से कम 100 मीटर ऊंचा है, उसे ही पर्वतमाला का हिस्सा माना जाएगा. दरअसल यह एक व्याख्या है लेकिन शंका यहीं पैदा हो गई है कि कहीं भविष्य में पहाड़ों का खनन करने वालों के लिए रास्ता तो नहीं खुल जाएगा? फिलहाल अरावली की पहाड़ियों में उत्खनन पर कड़ा प्रतिबंध लगा हुआ है लेकिन पर्वत की परिभाषा 100 मीटर निर्धारित होने से भविष्य में क्या इस तरह के प्रतिबंध कायम रह पाएंगे?
फिर तो उत्खनन करने वाले कहेंगे कि अमुक पर्वत 100 मीटर से कम ऊंचाई वाला है तो इसके उत्खनन की अनुमति मिलनी चाहिए. हमारे यहां व्यवस्था में इतने लोचे हैं कि अनुमति मिल जाए तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं. यह पर्वतमाला राजस्थान से गुजरात होते हुए दिल्ली तक जाती है.
इस पर्वतमाला के आसपास बसने वालों का कहना है कि यदि उत्खनन के लिए रास्ता खुल गया तो इससे पूरा पर्यावरण तबाह हो जाएगा. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव कह रहे हैं कि अरावली में उत्खनन पर सख्ती है और 90 प्रतिशत से ज्यादा इलाका अब भी पूरी तरह संरक्षित है. तो एक सवाल पैदा होता है कि दस प्रतिशत को किसने क्षतिग्रस्त किया?
मगर इसका जवाब मिलना मुश्किल है क्योंकि अरावली की पहाड़ियों के नीचे वाला क्षेत्र धनाढ्य लोगों को लुभाता रहा है. अतिक्रमण होता भी रहा है. करीब ढाई से तीन सौ साल पुरानी अरावली पर्वतमाला का न केवल भौगोलिक बल्कि पर्यावरणीय प्रभाव भी रहा है. जहां इसके पर्वतों की ऊंचाई कम है, पर्यावरण की दृष्टि से उसका भी बहुत महत्व है.
यह एक तरह से प्राकृतिक जल संग्रहण प्रणाली है. इसकी पथरीली भूमि पानी को जमीन के भीतर रिसने देती है जिससे अलवर सहित राजस्थान के कई इलाके तो लाभान्वित होते ही हैं, दिल्ली, गुरुग्राम और फरीदाबाद जैसे शहरों को भी लाभ पहुंचता है. यदि यहां बड़े पैमाने पर उत्खनन होने लगेगा तो इससे प्राकृतिक जलसंग्रहण प्रणाली पर गहरा असर होगा.
एक सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि अरावली पर्वतमाला की उपस्थिति का असर ये है कि थार रेगिस्तान के पूर्वी भारत की ओर फैलने की गति धीमी है. यदि पर्वतों को नुकसान पहुंचा, भले ही उनकी ऊंचाई कम हो, तो इससे मरुस्थल के विस्तार की आशंका पैदा हो जाएगी. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि अरावली पर्वत श्रृंखला को उसके मूल स्वरूप में सहेजा जाए.
पहाड़ियों की ऊंचाई भले ही कम हो, लेकिन उन्हें पर्वत श्रृंखला का हिस्सा ही माना जाना चाहिए. हम एक छोटा सा पहाड़ भी पैदा नहीं कर सकते तो जो पहाड़ हमें प्रकृति ने दिए हैं, उन्हें नष्ट करने का अधिकार हमें किसने दिया? हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम प्रकृति को जितना नुकसान पहुंचाएंगे, हमें उतना ही ज्यादा खामियाजा भुगतना होगा.
मौजूदा आशंकाओं के बीच सरकार को कानूनी रूप से स्पष्ट करना चाहिए कि अरावली के एक इंच टुकड़े की भी खुदाई की अनुमति किसी को नहीं दी जाएगी. यदि लोगों को भरोसा हो गया तो विवाद स्वतः समाप्त हो जाएंगे. अभी तो आशंकाओं के बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं.