सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण किया जाना ही बेहतर, भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग
By भरत झुनझुनवाला | Published: November 23, 2020 02:12 PM2020-11-23T14:12:46+5:302020-11-23T14:14:03+5:30
बैंक के संकट में आने के साथ ही सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों ने मांग की है कि लक्ष्मी विलास बैंक का विलय किसी सार्वजनिक बैंक के साथ किया जाना चाहिए.
पिछले तीस महीनों में असफल होने वाले प्राइवेट बैंकों में यस बैंक और पीएमसी बैंक के बाद तीसरे नंबर पर लक्ष्मी विलास बैंक है. इस बैंक के संकट में आने के साथ ही सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों ने मांग की है कि लक्ष्मी विलास बैंक का विलय किसी सार्वजनिक बैंक के साथ किया जाना चाहिए.
उनका मानना है कि प्राइवेट बैंकों में धांधलेबाजी होती है और जनता की गाढ़ी कमाई के साथ खिलवाड़ किया जाता है. लेकिन सार्वजनिक और प्राइवेट बैंकों के बीच एक मौलिक अंतर है. सार्वजनिक बैंकों के सभी शेयर भारत सरकार के पास होते हैं. इनके शीर्ष अधिकारी या चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफीसर का बैंक पर कोई मालिकाना हक नहीं होता है.
ऐसे में बैंक अधिकारी के लिए संभव है कि उसकी निगाह बैंक के लाभ पर न होकर अपनी कमाई पर हो. जैसे यदि किसी सार्वजनिक बैंक के मुख्य अधिकारी ने किसी डूबती हुई कंपनी को भारी ऋण दिया और उसमें एक रकम घूस के रूप में प्राप्त कर ली तो मुख्य अधिकारी को लाभ होगा लेकिन बैंक को घाटा होगा.
इतना सही है कि यदि देश का वित्त मंत्नी सजग हो तो घाटे में जाने वाले मुख्य अधिकारियों पर कदम उठाए जा सकते हैं. लेकिन देखा गया है कि यह सख्ती केवल उन्हें पदच्युत करने अथवा स्थानांतरित करने तक सीमित हो जाती है. मुख्याधिकारी के लिए यह संभव है कि एक बैंक में घाटा लगाने के बाद वह दूसरे पद पर पुन: लाभ कमाए. मूल बात है कि सार्वजनिक बैंक के मुख्य अधिकारी और मालिक (सरकार) के स्वार्थ अलग-अलग होते हैं.
तुलना में प्राइवेट बैंकों में मुख्याधिकारी और मालिक के बीच में गहरा समन्वय होता है. जैसे किसी प्राइवेट बैंक के मुख्याधिकारी द्वारा घटिया लोन दिए गए और बैंक को घाटा लगा तो बैंक के मालिक को भी घाटा लगेगा जबकि सार्वजनिक बैंक में ऐसा नहीं है. प्राइवेट बैंक को घाटा लगने के साथ उस बैंक के शेयर की कीमत गिरेगी और मालिक की साख भी तद्नुसार कम होगी. इसलिए मूल रूप से प्राइवेट बैंक के मुख्याधिकारी का प्रयास रहता है कि वह बैंक को लगातार अच्छी दिशा में ले चले ताकि उसकी स्वयं की नौकरी और उसके मालिक दोनों के हित सधते रहें.
इसके बावजूद सभी बैंकों द्वारा घटिया लोन दे दिए जाते हैं. यह कह पाना कठिन है कि ये ऋण गलतफहमी में दिए जाते हैं या फिर भली प्रकार सोच-विचार कर दिए जाते हैं. बहरहाल, यह सही है कि ऐसे ऋण देने से प्राइवेट बैंक को घाटा लगता है और वह घाटा शीघ्र ही बाजार और समाज के सामने आ जाता है और बैंक की साख प्रभावित होती है. तुलना में यदि सरकारी बैंकों के द्वारा भी इसी प्रकार के घटिया लोन दिए गए तो उनका पर्दाफाश नहीं हो पाता है. बैंकों को घाटा लगता रहता है और सरकार उनके घाटे की भरपाई करने के लिए इनमें उत्तरोत्तर अधिक पूंजी का निवेश करती रहती है.
हाल ही में वित्त मंत्नी ने सरकारी बैंकों में बीस हजार करोड़ रुपए की रकम पूंजी बढ़ाने का निर्णय लिया है. यानी प्राइवेट और सरकारी दोनों ही बैंकों द्वारा घटिया लोन दिए जाते हैं. दोनों में ही शीर्ष अधिकारी की मिलीभगत होती है अथवा हो सकती है. लेकिन यदि सरकारी बैंक द्वारा दिया गया ऋण घाटे में पड़ जाए तो बैंक डूबता नहीं है बल्कि उस घाटे की भरपाई करने के लिए केंद्र सरकार उस बैंक में पूंजी डालकर उसमें जान फूंक देती है. यदि प्राइवेट बैंक घाटाग्रस्त होता है तो वह डूब जाता है और अपने मालिक को भी ले डूबता है.
दोनों के इस अंतर को देखते हुए मेरी समझ से प्राइवेट बैंक ही बेहतर हैं क्योंकि घाटा तो दोनों में लगता है अंतर सिर्फ इतना है कि सार्वजनिक बैंक में लगी कैंसर की बीमारी अंदर-अंदर फैलती रहती है और ऊपर से कीमोथेरेपी चलती रहती है जबकि प्राइवेट बैंकों में इस रोग का पर्दाफाश शीघ्र हो जाता है और उसका पक्का उपचार किया जाता है, चाहे उस बैंक का जबरन दूसरे बैंक में विलय करने जैसा कदम ही क्यों न उठाना पड़े.