सबसे बड़ा सवाल तो काम की गुणवत्ता का है...
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 11, 2025 06:50 AM2025-01-11T06:50:08+5:302025-01-11T06:51:24+5:30
हमें उस मुकाम पर पहुंचना है तो वक्त को लेकर एक सर्वांगीण नजरिया अपनाना होगा.
काम के घंटे को लेकर इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति और उसके बाद अदानी समूह के मुखिया गौतम अदानी की राय के बाद जो बहस छिड़ी थी उसे लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एस.एन सुब्रमण्यन ने नये सिरे से हवा दे दी है. नारायण मूर्ति ने सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी तो सुब्रमण्यन ने अपने कर्मचारियों से कहा कि कितनी देर तक पत्नी को निहारोगे, 90 घंटे काम करो. उनके कहने का मतलब है कि बगैर किसी साप्ताहिक अवकाश के निरंतर करीब-करीब 13 घंटे काम करो.
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत को यदि दुनिया में शिखर पर पहुंचना है तो उन देशों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी जो विकसित कहलाते हैं. ज्यादा काम करने की जरूरत पर बल इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि विकसित देश जिस रफ्तार से चल रहे हैं, उनसे आगे निकलना है तो हमें उनसे ज्यादा तेज गति से भागना होगा. यानी ज्यादा काम करना होगा.
भारत में साप्ताहिक अवकाश के साथ इस समय काम के औसत घंटे प्रति सप्ताह 46.7 हैं. यदि सुब्रमण्यन की बात मान ली जाए तो लोगों को इससे करीब-करीब दो गुना काम करना होगा! यानी पूरी तरह यांत्रिक हो जाना होगा. काम के इन घंटों के अलावा कार्यस्थल पर पहुंचने के वक्त को भी जोड़ लिया जाए तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यक्ति की निजी जिंदगी का क्या होगा?
बहरहाल आधिकारिक रूप से काम के घंटे इतने होंगे या नहीं होंगे, यह दूर की बात है. अभी तो यह केवल विचारों और विवादों में है लेकिन एक बात तय है कि भारत में असली सवाल काम की गुणवत्ता को लेकर है. हमें अपने कलेजे पर हाथ रखकर ईमानदारी से खुद से पूछना चाहिए कि हम में से ज्यादातर लोग जो काम करते हैं, उसकी गुणवत्ता क्या होती है? भारत में जितनी देर लोग काम के लिए कार्यस्थल पर उपलब्ध होते हैं, उस समय में क्या केवल काम करते हैं?
जापान में आधिकारिक रूप से काम के घंटे कम हैं लेकिन काम के प्रति वहां के लोगों की प्रतिबद्धता गजब की है. एक व्यक्ति जिस कुर्सी पर काम कर रहा होता है, उसी कुर्सी पर अगली पारी में काम करने वाला व्यक्ति वक्त से पहले पहुंच जाता है. कहने का आशय यह है कि एक मिनट भी काम नहीं रुकता है. हमारे यहां दस-पांच मिनट तो क्या घंटे-आधे घंटे इधर-उधर होना सामान्य सी बात होती है. इसका नतीजा यह है कि हम उस स्तर पर उत्पादन प्राप्त नहीं कर पाते हैं जिस स्तर पर करना चाहिए. हमारे यहां बड़ी समस्या कौशल की भी है.
हालांकि कौशल विकास पर इन दिनों ध्यान दिया जा रहा है लेकिन अभी भी हम उस मुकाम पर नहीं पहुंचे हैं जहां चीन, जापान, जर्मनी या दक्षिण कोरिया और उन जैसे दूसरे देश पहुंच चुके हैं. हमें उस मुकाम पर पहुंचना है तो वक्त को लेकर एक सर्वांगीण नजरिया अपनाना होगा. अपने युवाओं को सिखाना होगा कि समय से बड़ी कोई पूंजी नहीं होती. भारत के साथ इस समय बड़ी समस्या युवाओं का फोन की रील्स में गुम हो जाना है.
आप कहीं भी नजर उठाकर देखें, फोन में चिपके युवा दिख जाएंगे. यह तो एक उदाहरण है, हमारे यहां समय की बर्बादी को कम करने को लेकर कोई सोच ही नहीं है. सामान्य जीवन में काम के घंटे बढ़ाने की बात तो हम तब करेंगे जब समय बचाएंगे. यहां तो समय बर्बाद करने की होड़ लगी हुई है तो काम के घंटों की बात क्या करें?