ब्लॉग: फिर से सुनहरा मौका चूक गए राजनीतिक दल
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: April 30, 2024 09:59 AM2024-04-30T09:59:11+5:302024-04-30T10:01:13+5:30
देश के अन्य राजनीतिक दलों की बात तो छोड़िए, तृणमूल कांग्रेस तथा बहुजन समाज पार्टी, जिनकी कमान महिला नेताओं के हाथ में है, ने भी लोकसभा चुनाव में महिलाओं को उपेक्षित रखा है.
विधान मंडलों तथा संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक संसद में पारित हो चुका है. इस विधेयक को अमलीजामा पहनाने में अभी पांच साल का इंतजार करना पड़ सकता है लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव ने तमाम राजनीतिक दलों को सुनहरा अवसर दिया था कि वह 33 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाओं को बनाते और महिला आरक्षण की मूल भावना को साकार कर दिखाते.
देश के अन्य राजनीतिक दलों की बात तो छोड़िए, तृणमूल कांग्रेस तथा बहुजन समाज पार्टी, जिनकी कमान महिला नेताओं के हाथ में है, ने भी लोकसभा चुनाव में महिलाओं को उपेक्षित रखा है.
कांग्रेस के संचालन, नीति निर्धारण तथा रणनीति बनाने में दो महिलाओं सोनिया गांधी तथा प्रियंका गांधी वाड्रा की निर्णायक भूमिका रहती है, मगर देश की सबसे पुरानी पार्टी ने भी महिलाओं के साथ टिकट वितरण में न्याय नहीं किया. ताजा लोकसभा चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं. इन दो चरणों में 2823 उम्मीदवार मैदान में थे जिनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 235 अर्थात 8 फीसदी थी.
महिला आरक्षण कभी प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक हुआ करता था. 2019 के चुनाव में भी भाजपा ने 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का वादा किया था. उसने संसद में महिला आरक्षण विधेयक तो पारित करवा लिया लेकिन उसे 2024 के चुनाव से प्रभावी बनाने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाया. अब यह विधेयक नए सिरे से जनगणना के बाद तमाम कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा करते हुए 2029 के पूर्व अमल में आता दिखाई नहीं देता.
देश के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही थी लेकिन जब विधानसभा तथा लोकसभा चुनावों की बात आई तो महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी देने में किसी भी राजनीतिक दल ने दिलचस्पी नहीं दिखाई.
साठ और सत्तर के दशक में जब राजा-महाराजाओं की स्वतंत्र पार्टी बनी, तब उसमें महारानी गायत्री देवी बड़ी शख्सियत थीं लेकिन वह भी चुनावों में महिलाओं को उचित संख्या में टिकट दिलवाने में कामयाब नहीं हो सकीं.
इंदिरा गांधी का दौर भारतीय राजनीति में नारीशक्ति का प्रतीक समझा जाता है लेकिन उनके दौर में भी कांग्रेस ने महिलाओं को पर्याप्त संख्या में मैदान में नहीं उतारा. नब्बे के दशक में महिला आरक्षण राजनीतिक मुद्दा बनना शुरू हुआ और 21वीं सदी में वह चुनाव का प्रमुख हथियार भी बना. कांग्रेस ने महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने की भरपूर कोशिश की, मगर विपक्ष ने पर्याप्त सहयोग नहीं दिया.
पिछले दो दशकों में भाजपा महिला आरक्षण की सबसे बड़ी पैरोकार बनी लेकिन उसने चुनावों में 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं को कभी नहीं दिया. आजादी के बाद से अब तक लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कभी 12 प्रतिशत भी नहीं रही. पिछले 25 वर्षों में भी स्थिति सुधरी नहीं है. 1999 में 6.11, 2004 में 6.5, 2009 में 7, 2014 में 8.01 और 2019 में सिर्फ 9 प्रतिशत महिलाएं ही लोकसभा सदस्य बन सकीं.
सभी राजनीतिक दल शायद 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का वादा तभी निभाएंगे, जब यह कानून सही अर्थों में लागू हो जाएगा. राजनीतिक दलों को शायद यह डर सता रहा है कि महिलाओं की ताकत अगर बढ़ गई तो पुरुष राजनेताओं का राजनीतिक अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा. एक मानसिकता यह भी काम करती है कि उन्हें महिलाओं के अधीन काम करना पड़ेगा. इस चुनाव में 98 करोड़ मतदाता हैं. इनमें लगभग 47 करोड़ महिलाएं हैं.
फिर भी राजनीति में महिलाओं को उचित हिस्सेदारी देने में राजनीतिक दल कभी दिलचस्पी नहीं दिखाते. महिला आरक्षण विधेयक लाने की जरूरत महसूस इसीलिए हुई क्योंकि राजनीतिक दलों में महिलाओं को आगे बढ़ाने की इच्छाशक्ति का अभाव था.
देश में इकलौता बीजू जनता दल है जो एक तिहाई महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारता है. अन्य दल उसका अनुसरण क्यों नहीं करते, वे महिला आरक्षण कानून लागू होने का इंतजार क्यों कर रहे हैं?