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अंतरिम प्रधानमंत्री के तौर पर तालिबान की पसंद के अफगानिस्तान के लिया क्या है मायने?

By भाषा | Updated: September 8, 2021 12:00 IST

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(अली ए ओलोमी, इतिहास के सहायक प्राध्यापक, पेन स्टेट)

स्टेट कॉलेज (अमेरिका), आठ सितंबर (द कन्वरसेशन) तालिबान ने सात सितंबर को घोषणा की कि मुल्ला हसन अखुंद को अफगानिस्तान का अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया जा रहा है।

यह फैसला राजधानी काबुल समेत अफगानिस्तान के अधिकांश हिस्सों पर चरमपंथी इस्लामी समूह के कब्जे के दो सप्ताह बाद आया है। द कन्वरसेशन ने पेन स्टेट यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया और इस्लाम के इतिहासकार, अली ए ओलोमी से जानना चाहा कि मुल्ला अखुंद कौन हैं और युद्ध से तबाह देश में मानवाधिकारों को लेकर चिंता के बीच उनकी नियुक्ति अफगानिस्तान के लिए क्या संकेत देती है।

कौन हैं मुल्ला हसन अखुंद?

मुल्ला अखुंद तालिबान में एक दिलचस्प और रहस्यमय व्यक्ति हैं। 1990 के दशक में चरमपंथी समूह की स्थापना के बाद से वह अफगानिस्तान में एक प्रभावी व्यक्तित्व रहे हैं।

लेकिन उस समय के अन्य तालिबान नेताओं के उलट, वह 1980 के दशक के सोवियत-अफगान युद्ध में शामिल नहीं रहे। तालिबान के संस्थापक मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके साथी सोवियत विरोधी अफगान लड़ाकों के अव्यवस्थित नेटवर्क-मुजाहिदीन के साथ लड़े थे लेकिन अखुंद उनमें शामिल नहीं थे।

दरअसल, उन्हें तालिबान में धार्मिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति के तौर पर अधिक देखा जाता है। उन्होंने धार्मिक विद्वानों और मुल्लाओं (इस्लामी धर्मशास्त्र में प्रशिक्षित लोगों को दिया जाने वाला सम्मान) से बनी पारंपरिक निर्णय लेने वाली संस्था तालिबान की शूरा परिषदों में सेवा दी।

अखुंद को ‘बमियान के बुद्ध’ का विनाश करने के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों में से एक के तौर पर संभवत: बेहतर जाना जाता है। बमियान घाटी में चट्टानों और चूना पत्थरों से बनी बुद्ध की दो खड़ी विशाल मूर्तियों को 2001 में तालिबान ने नष्ट कर दिया था।

शुरुआत में, उमर का मूर्तियों को नष्ट करने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन तालिबान के संस्थापक अफगानिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र की ओर से मानवीय सहायता उपलब्ध कराने के बजाय यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल के लिए संरक्षण राशि उपलब्ध कराए जाने से नाराज थे। उमर ने अपने शूरा की सलाह मांगी, और अखुंद उस परिषद का हिस्सा था जिसने छठी शताब्दी की मूर्तियों को नष्ट करने का आदेश दिया था।

अखुंद ने 1990 के दशक की तालिबान सरकार में विदेश मंत्री के रूप में कार्य करते हुए राजनीतिक भूमिका निभाई; हालांकि, उनका महत्व संगठन की धार्मिक पहचान के विकास में अधिक है। वह, मुल्ला उमर की तरह, सख्त इस्लामी विचारधारा के पक्षधर थे, जिसे देवबंदी के नाम से जाना जाता है।

तालिबान को 2001 में अफगानिस्तान से बेदखल किए जाने के बाद, अखुंद ने एक प्रभावशाली उपस्थिति बनाए रखी और ज्यादातर समय पाकिस्तान में निर्वासन में रहकर अपना काम करते रहे। वहां से वह 2000 और 2010 के दशक में तालिबान को आध्यात्मिक और धार्मिक मार्गदर्शन देते रहे। इस भूमिका में, उन्होंने अमेरिका और अमेरिका समर्थित अफगान सरकार के खिलाफ चल रहे विद्रोह को विचारधार के अनुरूप तर्कसंगत ठहराया।

उनकी नियुक्ति हमें तालिबान के बारे में क्या बताती है?

अखुंद की नियुक्ति के पीछे सत्ता संघर्ष नजर आ रहा है। मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, जिन्होंने उमर की मौत के बाद परोक्ष तौर पर नेता का पद संभालने से पहले तालिबान के शुरुआती वर्षों में उमर के बाद दूसरे नंबर का पद संभाला था, उन्हें अफगानिस्तान मामले के कई विशेषज्ञ देश के संभावित प्रमुख के तौर पर देख रहे थे।

लेकिन बरादर और शक्तिशाली हक्कानी नेटवर्क के बीच राजनीतिक तनाव है। हक्कानी नेटवर्क वह इस्लामी संगठन है जो हाल के वर्षों में तालिबान की वास्तविक राजनयिक शाखा बन गया है और अन्य स्थानीय समूहों के बीच समूह के लिए समर्थन हासिल करने में सफल रहा है। हक्कानी तालिबान के सबसे उग्रवादी गुटों में से है। और महिलाओं के अधिकारों, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने और पूर्व सरकार के सदस्यों के लिए माफी जैसे मुद्दों पर बरादर की हालिया सुलह की भाषा हक्कानी नेटवर्क की विचारधारा के विपरीत है।

अखुंद बरादर और हक्कानी नेटवर्क के समर्थकों के बीच एक समझौता उम्मीदवार प्रतीत होते हैं।

उनकी नियुक्ति में देरी - तालिबान द्वारा बार-बार घोषणा को टालना - तालिबान में आंतरिक विभाजन का संकेत हो सकती है।

अखुंद की नियुक्ति के अफगानिस्तान के लिए मायने हैं?

अखुंड एक रूढ़िवादी, धार्मिक विद्वान हैं, जिनकी मान्यताओं में महिलाओं पर प्रतिबंध और नैतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिक अधिकारों से वंचित करना शामिल है। 1990 के दशक में तालिबान द्वारा अपनाए गए उनके आदेशों में महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाना, लैंगिक अलगाव को लागू करना और सख्त धार्मिक परिधान को अपनाना शामिल था। यह सब इस बात का संकेत देते हैं कि आने वाला समय कैसा होगा।

तालिबान की नरम भाषा के बावजूद, ऐसी संभावना है कि कुछ नियमों की वापसी दिख सकती है जो तालिबान के पहले के शासन के दौरान मौजूद थे जिसमें महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध शामिल था।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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