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सफल सीओपी26 पृथ्वी के भविष्य के लिए जरूरी है, कुछ चीजें सही दिशा में करने की आवश्यकता

By भाषा | Updated: October 25, 2021 13:07 IST

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(क्रिश्चियन डाउनी, ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी)

कैनबरा, 25 अक्टूबर (द कन्वरसेशन) अब से एक हफ्ते बाद ग्लास्गो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता का एक अहम दौर शुरू होगा और इससे ज्यादा कुछ दांव पर नहीं लग सकता। इसके समापन पर ही हम जान जाएंगे कि विभिन्न देश मानवता की सबसे बड़ी चुनौती से निपटने के लिए कहां तक जाने के इच्छुक हैं।

तो क्या सीओपी26 सफलता की राह पर है? आशावान रहने की कुछ वजहें हैं:

चीन, अमेरिका और ब्रिटेन समेत 100 से अधिक देश पहले ही ‘निवल शून्य उत्सर्जन’ का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प कर चुके हैं। वैश्विक तौर पर नवीनीकरण ऊर्जा बढ़ रही है, जीवाश्म ईंधन के खिलाफ लहर चल रही है और जलवायु परिवर्तन पर कदम न उठाने की आर्थिक लागत पहले के मुकाबले अधिक स्पष्ट है।

अगर इतिहास ने हमें कुछ सिखाया है तो वार्ता में कोई भी देश जलवायु परिवर्तन पर उससे अधिक करने के लिए राजी नहीं होगा जितना उसे लगता है कि वह अपने देश में कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो घरेलू राजनीति अंतरराष्ट्रीय वार्ता को संचालित करती है।

ग्लास्गो में क्या होगा?

पहली सीओपी या ‘कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ 1995 में बर्लिन में हुई थी और अब 26वीं बार इसकी बैठक होगी। सीओपी26 वैश्विक तापमान वृद्धि के खिलाफ लड़ाई के अहम पहलुओं की दिशा तय करेगा। इसमें से प्रमुख यह होगा कि कैसे विकसित देशों ने वैश्विक ताप वृद्धि को दो प्रतिशत से नीचे रखने के लिए पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को लागू किया? और किस हद तक वे इस महत्वाकांक्षा को बढ़ाएंगे।

एजेंडे में शामिल अन्य मुद्दे विकासशील देशों को जलवायु वित्त पोषण, जलवायु परिवर्तन को अपनाना और कार्बन व्यापार नियम हैं। 31 अक्टूबर से सरकार के सैकड़ों प्रतिनिधि दो हफ्ते तक चलने वाली जटिल वार्ता में शामिल होंगे।

प्रगति धीमी है :

वैश्विक जलवायु वार्ता में दुनियाभर के लोग शामिल हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रगति धीमी हो सकती है। करीब 200 देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और यह सर्वसम्मति से हुआ समझौता है। यानी महज एक देश कई घंटों या दिनों के लिए प्रगति रोक सकता है।

निंदा - जो लोग जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई में देरी करना चाहते हैं वे इस पूरी प्रक्रिया को और कुछ नहीं महज ऐसी प्रक्रिया बताते हैं जहां लोग केवल बात करते हैं लेकिन करते कुछ नहीं।

यह सच है कि वार्ता धीमी है लेकिन बलपूर्वक कुछ कराने से यह कहीं अधिक बेहतर है और वार्ता के बिना देशों पर कुछ करने के लिए दबाव कम होगा। यह भी सच है कि पिछले 25 वर्षों में इन वार्ताओं को पुन: परिभाषित किया गया है कि कैसे दुनिया सोचती है और जलवायु परिवर्तन पर काम करती है।

आखिरकार पेरिस में सीओपी में ही जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी समिति को प्राक-औद्योगिक स्तर से ऊपर 1.5 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापमान वृद्धि के असर पर विशेष रिपोर्ट देने को कहा गया। इसके नतीजों की दुनियाभर में चर्चा हुई।

अगर हम वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना चाहते हैं तो हमें 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 45 प्रतिशत तक कमी लानी होगी और 2050 तक लगभग शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य पर पहुंचना होगा।

चूंकि पेरिस समझौता अटका हुआ है तो वैश्विक उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है और वो भी कोविड-19 के असर के बीच। सीओपी26 यह जांचने के लिए बड़ी परीक्षा होगी कि क्या दुनिया इसे बदल सकती है और वैश्विक तापमान वृद्धि से बच सकती है।

क्या ग्लास्गो में यह होगा?

ग्लास्गो सम्मेलन को सफल होने के लिए कुछ चीजें सही तरीके से होने की आवश्यकता है। सबसे पहले देशों को 2050 तक निवल शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि 2030 के लिए दृढ़ लक्ष्य तय करने की जरूरत है।

सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों को वित्त पोषण और तकनीक के जरिए विकासशील देशों की मदद करने की आवश्यकता है ताकि वे स्वच्छ ऊर्जा का प्रयोग कर सके और बाढ़ तथा सूखे समेत जलवायु परिवर्तन के असर को अपना सकें।

उम्मीद के कुछ संकेत मिले हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने ग्लास्गो सम्मेलन के मद्देनजर देश के इतिहास में सबसे महत्वाकांक्षी जलवायु योजनाओं का जिक्र किया है।

अंतरराष्ट्रीय वार्ता का अकसर दो स्तरीय खेल के तौर पर जिक्र किया जाता है। घरेलू स्तर पर बदलावों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए और महत्वाकांक्षी बदलाव आ सकते हैं।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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