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कोविड-19 के दौरान बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं को झेलना पड़ा अकेलापन

By भाषा | Updated: July 1, 2021 17:35 IST

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जेनेट ग्रीनलीज़, ग्लासगो कैलेडोनियन विश्वविद्यालय; एंड्रिया फोर्ड, एडिनबर्ग विश्वविद्यालय, और सारा रीड, लॉफबोरो विश्वविद्यालय

ग्लासगो / एडिनबर्ग / लॉफबोरो (ब्रिटेन), एक जुलाई (द कनवरसेशन) पिछले 15 महीनों में हमने न तो लोगों को गले लगाया और न ही उनसे हाथ मिलाया, घरों में रहे और पृथकवास किया, और जीवन की बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं को अकेले ही अनुभव किया। इस दौरान हम सिर्फ अपने परिवार में सिमटकर रहे गए-दोस्तों, परिचितों और यहां तक कि परिवार के अन्य सदस्यों से दूर।

मई में प्रिंस फिलिप के अंतिम संस्कार में मास्क लगाए अकेले बैठीं रानी की मार्मिक छवियों को कौन भूल सकता है? हम में से बहुत से लोग ‘‘सामान्य’’ हालात की वापसी का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं, यह व्यवधान हमारे जीवन में शोक मनाने अथवा बच्चे के जन्म जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर साहचर्य की भूमिका को प्रतिबिंबित करने का एक महत्वपूर्ण क्षण प्रदान करता है।

महामारी ने गर्भावस्था को गर्भवती माताओं के लिए विशेष रूप से तनावपूर्ण समय बना दिया, और बच्चे को अकेले जन्म देना एक भय और वास्तविकता दोनों बन गया।

महामारी के दौरान बदले हालात में अक्सर बच्चे के जन्म के समय महिला के साथ मौजूद रहने वाले व्यक्ति को केवल वास्तविक प्रसव पीड़ा के समय ही आने की इजाजत दी गई। इस दौरान परिवार के सदस्यों, दोस्तों और व्यावहारिक और भावनात्मक समर्थन प्रदान करने वाले साथियों की संख्या सख्ती से कम कर दी गई, जिससे कुछ महिलाओं के लिए बच्चे को जन्म देना एक गहरा दर्दनाक अनुभव बन गया। किसी साथी की हमदर्दी भरी थपकी के बिना होने वाला एक दर्दनाक अनुभव।

हालांकि यह इतिहास में पहली बार नहीं हुआ है कि महिलाओं को बिना किसी सहारे के इस गहन अनुभव से गुजरना पड़ा है। डेफो के ए जर्नल ऑफ द प्लेग ईयर में, 1665 में प्लेग की महामारी का जिक्र करते हुए इस बात पर अफसोस जताया गया है कि इस आपदा के दौरान बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं को सबसे दुखद अनुभव से गुजरना पड़ा, जब दुख और पीड़ा की उस घड़ी में उन्हें न तो किसी की सहायता मिल पाई और न ही कोई दाई या पड़ौसी उनकी मदद के लिए आ सकते थे।

हालांकि कोविड-19 की मौजूदा महामारी में बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं को बेशक उचित चिकित्सा देखभाल उपलब्ध थी, लेकिन ऐसे मौके पर महिला को भावनात्मक और व्यावहारिक समर्थन और सहायता प्रदान करने वाले उसके आसपास नहीं थे।

समर्थन नेटवर्क

इस चुनौतीपूर्ण अनुभव के दौरान महिलाओं के लिए न केवल पेशेवरों, बल्कि साथियों की संगति को आरामदायक और आवश्यक माना जाता था। हालांकि 20वीं सदी के मध्य से, इस तरह की सामाजिक अंतरंगता की बजाय व्यावसायिक संबंधों पर अधिक जोर दिया जाने लगा है।

पिछले कुछ वर्षों में प्रसव के दौरान समर्थन और सहयोग नेटवर्क पूरी तरह से बदल गया है। प्रसव के दौरान मां को आश्वासन प्रदान करने वाले किसी भरोसेमंद का साथ सम्मानजनक प्रसव का प्रमुख घटक बन गया है।

18 वीं शताब्दी के दौरान पुरुषों के लिए प्रसव कक्ष में उपस्थित होना अधिक सामान्य हो गया क्योंकि पुरूष सर्जन और चिकित्सक प्रसूति में अधिक रुचि लेने लगे और पुरुष दाइयों के रूप में भी पुरूष प्रसूति कक्ष में मौजूद रहने लगे, लेकिन बच्चे को जन्म देने जा रही महिला ने हमेशा अपने किसी करीबी महिला साथी के आसपास होते हुए प्रसव कराना पसंद किया।

18वीं सदी के मध्य से, कई पश्चिमी देशों में प्रसूति अस्पतालों की स्थापना की गई, लेकिन 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान, प्रसूति के समय और उसके बाद अधिकांश कामकाजी महिलाओं ने अपनी पड़ौसी दोस्त महिलाओं पर ज्यादा भरोसा किया।

जैसे ही बच्चे के जन्म का स्थान घर से अस्पताल में स्थानांतरित हुआ, प्रसव के दौरान महिला को समर्थन देने वाला यह नेटवर्क भी बदलने लगा। 1960 के दशक तक, अस्पतालों में बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं को अक्सर अस्पताल के सूने वातावरण में लंबे समय तक अकेले दर्द झेलने के लिए छोड़ दिया जाता था। जन्म की प्रक्रिया तेजी से चिकित्सकीय होने लगी और पेशेवर संबंध अन्य सब पर भारी हो गए ।

इसे आम तौर पर आधुनिक और आगे की सोच माना जाता था। इस दौरान दाइयां महिलाओं की जांच करती थीं और बच्चे के जन्म के समय कोई साथी, दोस्त या पड़ौसी मौजूद नहीं होता था। एक प्रसूति विशेषज्ञ ही गर्भावस्था और प्रसव दोनो का प्रबंध करता था।

प्रसव और बदलते तरीके

इतिहास बताता है कि सदियों से प्रसव के समय महिला का साथी कैसे बदलता रहा - और महामारी के प्रकोप से पहले, चीजें फिर से बदल रही थीं। उदाहरण के लिए, पिछले दो दशकों में जन्म के दौरान महिलाओं के अनुभवों को बेहतर बनाने के लिए प्रसव के समय उनकी कोई पसंदीदा दोस्त के मौजूद रहने का चलन बढ़ा।

कोविड ने प्रसव के बारे में महिलाओं की धारणाओं को चुनौती दी है। प्रसव पीड़ा के महिलाओं के अनुभवों को ऐसे समय में नजरअंदाज कर दिया गया है जब जन्म देने के बारे में उनके डर महामारी के प्रतिबंधों से और भी बढ़ गए थे और किसी का साथ उन्हें राहत दे सकता था।

बच्चे के जन्म के दौरान मौजूद लोग मां और शिशु के लिए भावनात्मक समर्थन प्रदान करने और प्रसव के दौरान मां की प्राथमिकताओं की वकालत करने से लेकर प्रसवोत्तर अवसाद की संभावना को कम करने तक, एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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