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'इज़राइल' और 'फ़लस्तीन' का इतिहास: वैकल्पिक नाम, प्रतिस्पर्धी दावे

By भाषा | Updated: July 7, 2021 13:26 IST

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डैनियल मिलर, धर्म, समाज और संस्कृति के एसोसिएट प्रोफेसर, बिशप विश्वविद्यालय टोरंटो, सात जुलाई (द कन्वरेसशन) 21 मई को, हवाई हमले रूक गए, रॉकेट थम गए और यहूदी तथा अरब इजरायलियों के बीच लड़ाई खत्म हो गई, क्योंकि इजरायल और उग्रवादी इस्लामी समूह हमास ने संघर्षविराम का फैसला किया। इस तरह 2008 के बाद से उनके बीच चौथे युद्ध की समाप्ति हुई।

युद्ध और उससे जुड़े पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। दोनों पक्षों ने, हमेशा की तरह, इस नवीनतम शत्रुता के लिए एक दूसरे को दोष दिया।

अफसोस की बात है कि यह युद्ध और उस तक पहुंचाने वाले हालात खून और आँसुओं में लिखे एक लंबे बहीखाते की नवीनतम प्रविष्टियाँ मात्र हैं।

‘‘इजराइल।’’ ‘‘फलस्तीन।’’ एक भूमि, दो नाम। दोनो ही पक्ष के लोग जमीन के अपना होने का दावा करते हैं।

‘‘इज़राइल’’का अस्तित्व पहली बार 13 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में मिस्र के मेरनेप्टाह स्टीले में नजर आता है, जो स्पष्ट रूप से (एक जगह के बजाय)‘‘कनान’’ में रहने वाले लोगों का जिक्र करता है। कुछ शताब्दियों बाद उस क्षेत्र में, हमें दो राज्य मिलते हैं: इज़राइल और यहूदा (यहूदी शब्द की उत्पत्ति)। बाइबल के अनुसार, पहले एक राजशाही थी जिसमें दोनों शामिल थे, जाहिरा तौर पर इसे ‘‘इज़राइल’’ भी कहा जाता था।

लगभग 722 ईसा पूर्व, इजरायल राज्य को नव-असीरियन साम्राज्य द्वारा जीत लिया गया था, जो अब इराक में स्थित है। एक प्राचीन भौगोलिक शब्द के रूप में, ‘‘इज़राइल’’ अब नहीं रहा था।

डेढ़ सदी से भी कम समय के बाद, यहूदा को उजाड़ दिया गया। इसकी राजधानी यरुशलम को बर्खास्त कर दिया गया, यहूदी धर्मस्थलों को नष्ट कर दिया गया और यहूदा के कई निवासियों को बेबीलोनिया में निर्वासित कर दिया गया।

निर्वासन की समाप्ति के लगभग 50 साल के बाद, यहूदा की पूर्व सल्तनत का क्षेत्र लगभग सात शताब्दियों तक यहूदी धर्म के केंद्र के रूप में कार्य करता रहा (हालाँकि पुनर्निर्मित धर्मस्थलों को फिर से 70 ईस्वी में, रोमनों ने नष्ट कर दिया था)।

135 ईस्वी में, एक असफल यहूदी विद्रोह के बाद, रोमन सम्राट हैड्रियन ने यहूदियों को यरूशलम से निष्कासित कर दिया और यह फैसला किया कि शहर और आसपास का इलाका ‘‘सीरिया-फलस्तीना’’ नामक एक बड़े भूभाग का हिस्सा होगा। ‘‘फलस्तीन’’ को उसका यह नाम प्राचीन फलस्तिनियों के तटीय क्षेत्र से मिला, जो इस्राइलियों (यहूदियों के पूर्वजों) के शत्रु थे।

सातवीं शताब्दी में पश्चिम एशिया पर इस्लामी विजय के बाद, अरब लोग पूर्व ‘‘फलस्तीन’’ में बसने लगे। लगभग 90 वर्षों के क्रूसेडर वर्चस्व के अलावा, भूमि केवल 1,200 वर्षों के लिए मुस्लिम नियंत्रण में रही। हालाँकि यहूदी बस्ती कभी समाप्त नहीं हुई, जनसंख्या बहुत हद तक अरब थी।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, प्रवासी यहूदियों की लंबे समय से अपनी विरासत की तरफ लौटने की तड़प की परिणति राष्ट्रवादी आंदोलन में हुई।

इस आंदोलन का मूल कारण यूरोप और रूस में यहूदियों के प्रति अत्यधिक बढ़ती घृणा से प्रेरित था। आप्रवासी यहूदियों को मुख्य रूप से अरब आबादी का सामना करना पड़ा, जो इसे अपनी पैतृक मातृभूमि भी मानते थे।

उस समय, इस क्षेत्र में तुर्क साम्राज्य के तीन प्रशासनिक क्षेत्र शामिल थे, जिनमें से किसी को भी ‘‘फलस्तीन’’ नहीं कहा जाता था। 1917 में, भूमि ब्रिटिश शासन के अधीन आ गई। 1923 में, ‘‘मैंडेटरी फलस्तीन’’ बनाया गया था, जिसमें मौजूदा जॉर्डन भी शामिल था। इसके अरब निवासियों ने खुद को ‘‘फलस्तीनी’’ नहीं, बल्कि फलस्तीन (या फिर ‘‘ग्रेटर सीरिया)में रहने वाले अरबों के रूप में देखा।

‘‘मैंडेटरी फलस्तीन’’ के यहूदीवादी नेताओं ने राज्य के दावों को मजबूत करने के लिए यहूदियों की संख्या बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन 1939 में अंग्रेजों ने यहूदी आप्रवासन को सख्ती से सीमित कर दिया।

अंततः, होलोकॉस्ट के जवाब में वैश्विक आतंक के कारण यहूदीवादी आंदोलन सफल रहा।

नवंबर 1947 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव 181 पारित किया, जिसमें भूमि को ‘‘स्वतंत्र अरब और यहूदी राज्यों’’ में विभाजित किया गया। जिसे अरब नेताओं ने तत्काल खारिज कर दिया। फलस्तीनी लड़ाकों ने यहूदी बस्तियों पर हमला किया।

14 मई, 1948 को, यहूदी नेतृत्व ने इज़राइल राज्य की स्थापना की घोषणा की।

नए यहूदी राज्य पर फ़लस्तीनी उग्रवादियों के साथ कई अरब देशों की सेनाओं ने तुरंत आक्रमण कर दिया। अगले साल जब लड़ाई समाप्त हुई, तब तक फलस्तीनियों ने अपने संयुक्त राष्ट्र के आवंटन का अधिकतर हिस्सा खो दिया था। उनमें से सात लाख को उनके घरों से भगा दिया गया था, और उन्हें आज तक वापस लौटने का अधिकार नहीं मिला।

यहूदी इजरायलियों के लिए, इसे ‘‘स्वतंत्रता संग्राम’’ के रूप में जाना जाता है। फलस्तीनियों के लिए, यह अल-नकबा था यानी तबाही।

15 नवंबर 1988 को, फ़लस्तीनी राष्ट्रीय परिषद ने स्वतंत्रता की घोषणा जारी की, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक महीने बाद मान्यता दी गई। संयुक्त राष्ट्र की लगभग तीन-चौथाई सदस्यता अब फलस्तीन के राज्य का दर्जा स्वीकार करती है, जिसे गैर-सदस्य पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है।

अरब देशों और उग्रवादी संगठनों के साथ युद्ध के बावजूद इस्राइल ने तरक्की की है, जबकि फलस्तीनियों को अपनी कामकाजी सरकार के गठन और आर्थिक स्थिरता कायम करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

दोनो के बीच हुए संघर्षों में दोनों पक्षों ने असंख्य गलतियां और क्रूरताएं देखी हैं। आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है कि दोनो पक्ष पीछे की तरफ देखना बंद कर दें।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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