अमेरिका के पनडुब्बी करार पर फ्रांस की नाराजगी से गठबंधन नहीं टूटेगा

By भाषा | Updated: October 17, 2021 16:51 IST2021-10-17T16:51:29+5:302021-10-17T16:51:29+5:30

France's displeasure over America's submarine deal will not break the alliance | अमेरिका के पनडुब्बी करार पर फ्रांस की नाराजगी से गठबंधन नहीं टूटेगा

अमेरिका के पनडुब्बी करार पर फ्रांस की नाराजगी से गठबंधन नहीं टूटेगा

(हर्वे थॉमस कैम्पेन, फ्रांसीसी अध्ययन के प्रोफसर, मैरीलैंड यूनिवसिर्टी)

मैरीलैंड(अमेरिका), 17 अक्टूबर (द कन्वरसेशन) फ्रांस द्वारा अमेरिका से अपने राजदूत को बुलाया जाना फ्रांस-अमेरिकी संबंधों के लंबे इतिहास में दुर्लभ कदम है जिसकी शुरुआत वर्ष 1778 के समझौते से होती है और जिसने दोनों देशों के बीच सैन्य और वाणिज्यिक गठबंधन स्थापित किया।

राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा 15 सितंबर 2021 को अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच नए त्रिपक्षीय सुरक्षा साझेदारी की घोषणा को फ्रांस में अविश्वास और नाराजगी की नजर से देखा गया।

इस करार से ऑस्ट्रेलिया अमेरिका की परमाणु संचालित पनडुब्बी की प्रौद्योगिकी प्राप्त कर सकेगा जिसकी वजह से फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के बीच वर्ष 2016 में हुए 66 अरब डॉलर का करार निष्प्रभावी हो गया।

ऑस्ट्रेलिया द्वारा पुराने करार के प्रति रुख बदलने का असर फ्रांस पर न केवल वित्तीय रूप से पड़ा बल्कि फ्रांसीसी विदेश मंत्री जीन-यवेस ली ड्रियान ने अमेरिका और उसके साझेदारों पर ‘‘झूठ बोलने, दोहरा रवैया अपनाने, विश्वासघात करने और अवमानना करने का आरोप लगा दिया।

22 सितंबर को बाइडन और फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमैनुअल मैंक्रो की फोन पर हुई बातचीत ने मेलमिलाप की ओर बढ़ने का रास्ता तैयार किया। दोनों नेता रणनीतिक हित पर गहन चर्चा पर सहमत हुए जो अक्टूबर के अंत में यूरोप में होने वाली बैठक के साथ होगी। ली ड्रियान ने स्वीकार किया कि संकट के समाधान में ‘समय लगेगा और इसमें कदम उठाने की जरूरत है।’’

फ्रांस की करार को लेकर नाराजगी के बावजूद बहुत कम संभावना है कि दोनों देशों के संबंधों में सुधार नहीं किए जाने वाली क्षति हो। अगर मौजूदा राजनयिक संकट की धारा कुछ रेखांकित करती है तो वह संघर्ष के तूफान और दोस्ती को करती है, जो मेरा अध्ययन दिखाता है कि शुरुआत से ही अमेरिकी-फ्रांसीसी संबंधों का चरित्र रहा है।

अमेरिका और अमुक देश के बीच बहुत अधिक उम्मीद- जिनका उल्लेख ‘सबसे पुराने साझेदार’ के तौर पर भी किया जाता है- पहले भी अकसर राजनयिक भ्रम की स्थिति और लड़ाई का कारण बनी।

विश्वासघात, निजी युद्धपोत और विरोध

ब्रैंडीवाइन और यॉर्कटाउन की लड़ाई में ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ अमेरिकी सैनिकों के साथ फ्रांस द्वारा कंधे से कंधे मिला कर लड़ने के 20 साल से भी कम समय में दोनों देशों के बीच 1794 में जेय संधि को लेकर मतभेद उभर आए, इस संधि में अमेरिका और ब्रिटेन के बीच आर्थिक संबंधों को बहाल करने का प्रावधान था।

फ्रांस का मानना था कि यह संधि अमेरिका द्वारा विश्वासघात हैं। तब के नोट में जिसकी प्रतिध्वनि ली ड्रियन की नवीनतम शिकायत में भी सुनाई देती हैं। फ्रांसीसी निदेशालय के निदेशक मंडल के पांच सदस्यों ने शिकायत की थी, ‘‘अमेरिका की सरकार ने फ्रांसीसी गणराज्य के खिलाफ विश्वासघात का कदम उठाया है, जो उसका सबसे भरोसेमंद साझेदार है।’’

फ्रांस ने इसके बाद अपने निजी युद्धपोतों को अमेरिकी व्यापारिक जहाजों को जब्त करने की मंजूरी दी जिससे अमेरिकी वाणिज्य को उल्लेखनीय नुकसान हुआ।

इसको लेकर अमेरिका के फिलाडेल्फिया में विरोध शुरू हो गया और लोगों ने फ्रांस से युद्ध शुरू करने की मांग की। अमेरिकी कांग्रेस ने नौसेना को वित्तीय मदद पहुंचाने के लिए त्वरित आधार पर विधेयक पारित किया और इसके साथ ही देशीय व्यक्ति और राजद्रोह अधिनियम 1798 पारित किया जिसमें अमेरिकी नागरिक बनने के लिए अमेरिका में निवास की न्यूनतम अवधि पांच से बढ़ाकर 14 साल कर दी गई, इसमें खतरनाक माने जाने वाले विदेशियों का निर्वासन करने और सरकार की आलोचना करने वाले भाषणों पर रोक का प्रावधान था।

इसके बाद नौसेना ने अघोषित युद्ध लड़ा जिसे ‘क्वासी वार’के नाम से जाना जाता है और यह सन 1800 में मोर्टेफोनटाइन की संधि तक जारी रहा। इस संधि में दोनों देशों के बीच अधिक दोस्ताना संबंध स्थापित हुए। शत्रुता के दौरान फ्रांस ने अटलांटिक तट के किनारे और वेस्ट इंडीज के पास से करीब दो हजार अमेरिकी जहाजों को जब्त किया था।

अमेरिका में कमजोर हुआ

नेपोलियन तृतीय के 1852 से 1870 के शासन के दौरान दोनों देशों ने बहुत ही मुश्किल से युद्ध टाला। वर्ष 1862 में फ्रांसीसी सम्राट ने मेक्सिको में कठपुतली सरकार स्थापित करने की कोशिश की और मैक्सीमिलियन हब्सबजर्ग को मेक्सिको के सम्राट के रूप में स्थापित किया।

नेपोलियन तृतीय के लिए यह कैथोलिक और लैटिन राजवंश नयी दुनिया (अमेरिका)के प्रोस्टैंट और अमेरिकी रिपब्लिकन प्रभाव का मुकाबला करने का साधन था।

अमेरिका का मानना था कि यह कदम राष्ट्रपति जेम्स मोनरो द्वारा वर्ष 1823 में स्थापित विदेश नीति ‘मोनरो डॉक्ट्रिन’ का उल्लंघन है जिसमें उल्लेख था कि किसी भी यूरोपीय शक्ति के पश्चिमी गोलार्ध में हस्तक्षेप को अमेरिका के खिलाफ शत्रुता का कदम माना जाएगा।

हालांकि, अमेरिका गृहयुद्ध की वजह से सीधे तौर पर जवाब नहीं दे सका क्योंकि उसे डर था कि फ्रांस कॉनफेड्रेशन का पक्ष ले सकता है। परंतु विदेशमंत्री विलियम हेनरी सिवॉर्ड लगातार फ्रांस को मेक्सिको में हस्तक्षेप के गंभीर परिणाम की चेतावनी देते रहे।

वर्ष 1865 में, गृहयुद्ध समाप्त होने के बाद फ्रांस-अमेरिका युद्ध की बड़े पैमाने पर चर्चा तब शुरू हुई जब राष्ट्रपति एंड्रयू जॉनसन ने जनरल जॉन एम स्कोफिल्ड को फ्रांस को चेतावनी देने के लिए पेरिस भेजा और अमेरिका द्वारा मेक्सिको में नेपोलियन तृतीय की सेना को भगाने के लिए संभावित अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के समय की गणना की जाने लगी।

हालांकि, नेपोलियन तृतीय अंतत: सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमत हो गया। लेकिन इस मेक्सिको हस्तक्षेप ने अमेरिका में फ्रांस को बहुत कमजोर कर दिया।

इसका प्रभाव वर्ष 1870 के फ्रांस-प्रशिया युद्ध में देखने को मिला, अमेरिकी सरकार के तटस्थ रहने के बावजूद अमेरिकी जनता का स्पष्ट समर्थन फ्रांसीसियों के बजाय जर्मन के लिए था।

20वीं सदी का तनाव

अमेरिका और फ्रांस में राजनयिक संकट 20वीं सदी में दोबारा आया।

अमेरिकी राजनयिक जॉर्ज वेस्ट के मुताबिक राष्ट्रपति चार्ल्स डी गाल के वर्ष 1966 में सैन्य गठबंधन नाटो के एकीकृत कमान से फ्रांस को अलग करने के फैसले ने पूर्व विदेश मंत्री डीन एचेसन और अन्य विदेश नीति सलाहकारों को प्रेरित किया कि ‘‘वे हर तरीके से फ्रांस को उसका जवाब दें और इसकी वजह से हमारे संबंध निचले स्तर पर चले गए, और हर संभव तरीके से दंडात्मक तरीके से जवाबी कार्रवाई की गई।

अंत में हालांकि, राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने जवाब दिया और डी गाल को कहा कि अमेरिका गठबंधन की प्रतिरोधक प्रणाली को कायम रखने के लिए अन्य नाटो सदस्यों से जुड़ने को तैयार है।

वर्ष 1986 में दोनों देशों में एक बार फिर खटास आई जब राष्ट्रपति फ्रांकोइस मिट्टरैंड ने लीबिया पर हवाई हमला करने के लिए अमेरिकी बमवर्षक विमानों को अपने हवाई क्षेत्र से गुजरने देने से मना कर दिया। इसको लेकर अमेरिका के कई शहरों में फ्रांस विरोधी प्रदर्शन हुए। फ्रांस की मशहूर शराब बोर्डो वाइन को लोगों ने नाले में बहाया और उसके उत्पादों में आग लगा दी।

एक अन्य संकट वर्ष 2003 में आया जब अमेरिका की इराक में घुसपैठ का फ्रांस ने समर्थन करने से इनकार कर दिया। घटना से नाराज अमेरिकी अधिकारियों ने ‘‘फ्रांस को सजा’ देने की इच्छा जताई और मीडिया में फ्रांस के खिलाफ ‘‘चीज खाने वालों ने बंदरों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया’’ नाम से अभियान चलाया।

राजनयिक स्तर पर हुए विवाद का असर लंबे समय तक रहा और वर्ष 2005 तक इसका समाधान नहीं हुआ जब दोनों देशों ने समान्य संबंध स्थापित किए।

ये सभी उदाहरण और आज का संकट, दोनों तरफ से दी गई प्रतिक्रिया राजनीति के दायरे से बाहर है। जुनून की भाषा ने कूटनीति के अधिक तटस्थ भाव को बदल दिया है।

यह जुनूनी मोड़ उस किवदंती का नतीजा है जो फ्रांस के आत्मदुष्टि से उत्पन्न हुआ है कि वह अमेरिका का ‘सबसे पुराना साझेदार है और अमेरिका का स्वयं आदर्शवादी रुख कि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में वह फ्रांस को बचाने वाला एकमात्र है।

यह किवंदती कि कुछ भी हो फ्रांस और अमेरिका हमेशा एक ओर रहेंगे- राजनीतिक, आर्थिक और राजनयिक मामलों में- दोनों देशों के अधिक यथार्थवादी संबंधों में बाधा उत्पन्न करती है।

‘‘ सबसे पुराने साझेदार’ के शब्दांडबर से परे जाने पर दोनों देश और अधिक उत्पादक तरीके से अपने संबंधों के वास्तविक स्वरूप को देख सकेंगे,जहां 21वीं की जटिल दुनिया में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अंतर्गत दो लोकतांत्रिक देशों के हित कभी मिलते हैं तो कभी अलग होते हैं।

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