हैण्डलूम कपड़े हैं पसंद तो जरूर करें इन शहरों की सैर, फिल्म 'सुई-धागा' में भी है जिक्र

By मेघना वर्मा | Updated: August 8, 2018 10:24 IST2018-08-08T10:23:32+5:302018-08-08T10:24:51+5:30

मुगलकाल से शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर सैंकड़ों देशों से होता हुआ आज भी बदस्तूर जारी है।

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हैण्डलूम कपड़े हैं पसंद तो जरूर करें इन शहरों की सैर, फिल्म 'सुई-धागा' में भी है जिक्र

हाल ही में अनुष्का-शर्मा और वरूण धवन की फिल्म सुई-धागा का प्रोमो रीलिज किया गया है। वादे के मुताबिक फिल्म के इस प्रोमो में फिल्म की कहानी नहीं बल्कि पूरे देश को दिखाया गया है। पूरे भारत को कढ़ाई के धागों से जोड़ता यह वीडियो आपको देश के अलग-अलग हिस्सों के कढ़ाई कला को दिखाता है। जिसमें सभी बुनकर अपने-अपने अंदाज में फिल्म के नाम 'सुई-धागे' को बुनते दिखाई देते हैं। आज हम आपको भारत के ऐसे ही दो बुनाई के बारे में बताने जा रहे हैं जिसके दीवाने सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हैं। जरा अपनी वॉर्ड रोब भी चेक करीएगा हुजूर आपके पास भी इन दो कढ़ाइयों वालें कपड़े जरूर पड़े होंगे।

लखनऊ का चिकन वर्क

लखनऊ का कबाब तो आपने बखूबी सुना हुआ है लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिस चिकन कढ़ाई के कुर्ते को आप सालों से पहन रहे हैं वो भी नवाबों के शहर लखनऊ से ही बन कर आया है। चिकन कढ़ाई लखनऊ की प्रसिद्ध शैली है। यह लखनऊ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी जरदोजी यहां का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढ़ाते हैं। इस उद्योग का ज्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। यहां के बाजार चिकन कशीदाकारी के दुकानों से भरे हुए हैं।

95 प्रतिशत महिलाएं करती हैं यह काम

मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि 36 प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं। इसके माहिर एवं प्रसिद्ध कारीगरों में उस्ताद फयाज खां और हसन मिर्जा साहिब थे। इस हस्तशिल्प उद्योग का एक खास पहलू यह भी है कि उसमें 95 फीसदी महिलाएं हैं। ज्यादातर महिलाएं लखनऊ में गोमती नदी के पार के पुराने इलाकों में बसी हुई हैं। चिकन की कला, अब लखनऊ शहर तक ही सीमित नहीं है अपितु लखनऊ तथा आसपास के अंचलों के गांव-गांव तक फैल गई है।

लंदन में रखा है यहां के कारिगरी का नमूना

मुगलकाल से शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर सैंकड़ों देशों से होता हुआ आज भी बदस्तूर जारी है। चिकनकारी का एक खूबसूरत आर्ट पीस लंदन के रायल अल्बर्ट म्यूजियम में भी विश्वभर के पर्यटकों को अपनी गाथा सुना रहा है।

राजस्थान का बंधेज है विदेशों की पहली पसंद

अपनी रंग-बिरंगी संस्कृति के अलावा राजस्थान दुनिया भर के पर्यटकों के बीज अपने रंग-बिरंगे बांधनी कला के लिए भी प्रचलित है। गांठ लगाकर रंगाई का तरीका हो या रंग-बिरंगी कढ़ाई राजस्थान की इस खास तरह के बुनाई या रंगाई के लोग दीवाने हैं। रेशमी अथवा सूती कपड़े के भागों को रंग के कुंड में डालने के पूर्व मोमयुक्त धागे से कसकर बांध दिया जाता है। बाद में धागे खोले जाने पर बंधे हुए भाग रंगहीन रह जाते हैं। 

18वीं सदी के पहले की है परंपरा

यह तकनीक भारत के बहुत से भागों में प्रयोग की जाती है, लेकिन गुजरात व राजस्थान में यह बहुत लंबे समय से प्रयोग में रही है। आज भी राज्य इस तकनीक के बेहतरीन काम के लिए जाने जाते हैं। इस तकनीक के सुरक्षित नमूने 18वीं सदी से पहले के नहीं हैं, जिससे इसके प्रारंभिक इतिहास का पता लगाना मुश्किल हो गया है।

युवा लड़कियां करती हैं यह काम

बांधनी एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है और यह काम बहुधा युवा लड़कियों द्वारा किया जाता है। इसमें कपड़े को कई स्तरों पर मोड़ना, बांधना और रंगना शामिल है। अंतिम परिणाम लाल या नीले रंग की पृष्ठभूमि पर सफेद अथवा पीली बिंदियों वाला वस्त्र होता है, ज्यामितीय आकृतियां सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, लेकिन पशुओं, मानवीय आकृतियों, फूलों तथा रासलीला आदि दृश्यों को भी कई बार शामिल किया गया है।

 

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