कुछ जाति विशेष के लोग अपनी वीरता के किस्से दोहराते हैं तो कुछ अपनी जाति की विद्वता का बखान करते हैं। इसके लिए लोग वेदों, पुराण से लेकर तमाम ऐतिहासिक ग्रंथों तक का उदाहरण देते हैं। क्या आज के समाज में किसी को अपनी जाति के नाम पर गर्व करना चाहिए? हमारा जवाब है जरूर करना चाहिए लेकिन जाति जन्म से नहीं, कर्म से तय होनी चाहिए। महाभारत के उद्योग पर्व से गुजरते हुए 'विदुरनीति' में भी इसके संकेत मिलते हैं।
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पंडित उच्यते।।
अर्थात: क्रोध, लज्जा, गर्व, उद्दंडता तथा अपने को पूज्य समझना। ये भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पंडित कहलाता है।
यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।कृतमेवास्य जानन्ति स वै पंडित उच्यते।।
अर्थातः दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किए हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा होने पर ही जानते हैं। वही पंडित कहलाता है।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः।समृद्धरसमृद्धिर्वा स वै पंडित उच्यते।।
अर्थातः सर्दी, गर्मी, भय, अनुराग, सम्पत्ति और दरिद्रता। ये जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालते, वही पंडित कहलाता है।
क्षिप्रं विजानाति चिरें शृणोतिविज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।नासम्पृष्टो व्युपयुंक्ते परार्थेतत् प्रज्ञानं प्रथमं पंडितस्य।।
अर्थातः विद्वान पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है और जल्दी समझ लेता है। समझकर कर्तव्य बुद्धि से पुरुषार्थ में लग जाता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में कोई बात नहीं करता है। उसका यही स्वभाव पंडित की मुख्य पहचान है।
न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते।गांगो ह्रद इवाक्षोभ्यो यः स पंडित उच्यते।।
अर्थातः जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता। अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गंगा जी के कुंड के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वही पंडित कहलाता है।
My View: हमें खुद से हमेशा ये सवाल पूछते रहना चाहिए कि हम कौन हैं, क्या हैं और क्यूं पैदा हुए हैं? जब इन सवालों के जवाब तलाशेंगे तो खुद के अस्तित्व का एहसास होगा और जीवन में सफलता भी मिलेगी। वरना जाति और धर्म की आड़ में छिपते हुए कायरों की ज़िंदगी बिता देंगे।