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मीराबाई चानू ने सिखाया खेल और जीवन में वापसी का सबक

By भाषा | Updated: July 24, 2021 19:03 IST

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(अपराजिता उपाध्याय)

नयी दिल्ली, 24 जुलाई किसी को जीवन या खेल में वापसी का सबक सीखना है तो उसके लिए महिला भारोत्तोलक मीराबाई चानू से बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता जिन्होंने शनिवार को तोक्यो ओलंपिक में 49 किग्रा वर्ग में रजत पदक जीतकर अपना सपना साकार किया।

मीराबाई ने रजत पदक जीतने के बाद कहा कि उनका सपना साकार हो गया है लेकिन इसे साकार करने के लिए उन्हें दिन-प्रतिदिन एक के बाद एक बाधाओं को पार करना पड़ा।

मीराबाई ने तोक्यो ओलंपिक खेलों में रजत पदक के साथ भारत का पदक का खाता खोला और इससे पांच साल पहले रियो खेलों में अपने निराशाजनक प्रदर्शन को भी पीछे छोड़ने में कामयाब रहीं।

पूर्व विश्व चैंपियन मीराबाई को इस पदक का बेसब्री से इंतजार था। मीराबाई को पदक जीतने के बाद पूरे देश ने सिर-आंखों पर बैठा लिया है लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन्हें गरीबी को हराना पड़ा और कई बाधाओं से उबरना पड़ा।

इम्फाल से लगभग 20 किमी दूर नोंगपोक काकजिंग गांव की रहने वाले मीराबाई छह भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। उनका बचपन पास की पहाड़ियों में लकड़ियां काटते और एकत्रित करते तथा दूसरे के पाउडर के डब्बे में पास के तालाब से पानी लाते हुए बीता।

मीराबाई के जज्बे का अंदाजा इस बात से लगता है कि एक बार जब उनका भाई लकड़ियां नहीं उठा पाया तो वह 12 साल की उम्र में दो किलोमीटर चलकर लकड़ियां उठाकर लाई।

चानू ने अपने जीवन में काफी पहले फैसला कर लिया था कि वह खेलों से जुड़ेंगी। वह तीरंदाज बनने की राह पर थी लेकिन भाग्य को कुछ और मंजूर था। वह जिस दिन तीरंदाजी केंद्र गई, उस दिन केंद्र बंद था। मीराबाई इसकी जगह भारोत्तलकों को ट्रेनिंग करते हुए देखने चली गई।

अपने की राज्य मणिपुर की दिग्गज भारोत्तोलक कुंजरानी देवी के बारे में पढ़ने के बाद वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी उपलब्धियों से प्रभावित हुई।

भारोत्तोलक बनने की राह में हालांकि कई अड़चनें थी। वित्तीय संकट के कारण माता-पिता उनका समर्थन करने की स्थिति में नहीं थे। इसके अलावा ट्रेनिंग और स्कूल के समय में सामंजस्य बैठाने के लिए भी उन्हें जूझना पड़ता था। मीराबाई दो बस बदलकर अपने ट्रेनिंग केंद्र पहुंचती थी जो उनके गांव से 22 किमी दूर था।

मीराबाई ने अपना पहला राष्ट्रीय पदक 2009 में जीता। वह इसके बाद काफी जल्दी आगे बढ़ी और उन्होंने 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक हासिल किया।

रियो ओलंपिक 2016 में पदक की प्रबल दावेदार तब 21 बरस की मीराबाई का दिल उस समय टूट गया जब वह क्लीन एवं जर्क में अपने तीनों प्रयासों में नाकाम रही और इसके कारण उनका कुल वजन रिकॉर्ड नहीं हुआ।

मणिपुर की इस खिलाड़ी ने इस निराशा से उबरते हुए अगले साल 2017 विश्व चैंपियनशिप में खिताब जीता। वह इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में दो दशक से अधिक समय में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय भारोत्तोलक बनीं।

कुछ महीनों बाद मीराबाई ने 2018 राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक हासिल किया।

मीराबाई को हालांकि अपनी उपलब्धियों के लिए कुर्बानियां भी देनी पड़ी। परिवार से दूर रहना उनके लिए आम बात है। विश्व चैंपियनशिप में हिस्सा लेने के कारण वह अपनी बहन की शादी में भी हिस्सा नहीं ले पाई।

लगातार दो स्वर्ण पदक के बाद खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित मीराबाई कमर की रहस्यमयी तकलीफ का शिकार हो गई जिससे 2018 में उनकी प्रगति प्रभावित हुई और वह उस साल एशियाई खेलों में भी हिस्सा नहीं ले पाई।

उनकी बीमारी से डॉक्टर भी हैरान थे क्योंकि कोई भी उनकी कमर में दर्द का असल कारण नहीं पता कर पाया। इसके कारण मीराबाई एक साल बाद ही ट्रेनिंग दोबारा शुरू कर पाई और उन्होंने अच्छी वापसी की। वह 2019 एशियाई और विश्व चैंपियनशिप में पदक के बेहद करीब पहुंची।

ओलंपिक पदक जीतने के लिए प्रतिबद्ध मीराबाई ने लगातार सुधार किया और कोरोना वायरस महामारी भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाई। यही है मीराबाई चानू।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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