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आरटीआई कार्यकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत किया, कहा - कानून से ऊपर कोई नहीं

By भाषा | Updated: November 13, 2019 20:49 IST

आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडर (सेवानिवृत्त) लोकेश बत्रा ने कहा, ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है, खासतौर से वे लोग जो सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं।’’

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ठळक मुद्देउच्चतम न्यायालय के फैसले की आरटीआई कार्यकर्ताओं ने सराहना की न्होंने शीर्ष न्यायालय द्वारा इन शब्दों के इस्तेमाल को ‘‘अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण’’ और ‘‘चौंकानेवाला’’ बताया

प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत लाने के उच्चतम न्यायालय के फैसले की आरटीआई कार्यकर्ताओं ने बुधवार को सराहना की और साथ ही कहा कि ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है।’’ हालांकि, उन्होंने शीर्ष न्यायालय द्वारा इन शब्दों के इस्तेमाल को ‘‘अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण’’ और ‘‘चौंकानेवाला’’ बताया कि आरटीआई का इस्तेमाल निगरानी के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।

आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडर (सेवानिवृत्त) लोकेश बत्रा ने कहा, ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है, खासतौर से वे लोग जो सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं।’’ उन्होंने कहा कि इस फैसले से कई संभावनाएं खुली हैं और यहां तक कि विधि निर्माताओं (संसद और विधानसभा सदस्य) और अन्य को भी आरटीआई कानून के दायरे में होना चाहिए। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के राज्यसभा मजीद मेमन ने कहा कि न्यायाधीश ‘‘दिव्यात्मा’’ नहीं हैं।

उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘न्यायाधीश ‘दिव्यात्मा’ नहीं हैं। वे भी हमारे बीच के इंसान ही हैं। उनमें भी कमियां हो सकती हैं। न्यायाधीशों को आरटीआई के दायरे में लाने का फैसला पारदर्शिता और न्याय प्रणाली में लोगों के भरोसे की दिशा में बहुत बड़ा कदम है।’’ गैर सरकारी संगठन राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (सीएचआरआई) के सूचना पहुंच कार्यक्रम के प्रमुख वेंकटेश नायक ने कहा, ‘‘मैं (उच्चतम न्यायालय की) संविधान पीठ द्वारा कानून में स्थापित रूख दोहराये जाने के फैसले का स्वागत करता हूं कि भारत का प्रधान न्यायाधीश सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत एक लोक प्राधिकार है।’’ अपने ऐतिहासिक फैसले में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 में दिये फैसले को बरकरार रखा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में आता है ।

शीर्ष न्यायालय ने अदालत के सेक्रेटरी जनरल और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी की अपील को खारिज कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की ओर से सिफारिश किये गए नामों का खुलासा किया जा सकता है, न कि इसके कारणों का। अदालत ने यह चेताते हुए कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम का निगरानी के औजार की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है । पारदर्शिता के साथ काम करने में न्यायिक आजादी के बारे में विचार किया जाना आवश्यक है । आरटीआई का इस्तेमाल निगरानी के लिये नहीं किये जा सकने वाली उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी को नायक ने ‘‘बेहद दुर्भाग्यपूर्ण’’ करार दिया ।

उन्होंने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘यह विचार बेहद दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी है कि सूचना का अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल न्यायपालिका की निगरानी के लिए किया जा सकता है । दुभार्ग्यपूर्ण है कि निगरानी की पारदर्शिता से की गई है जो संसद से पारित कानून के तहत जरूरी है।’’ पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने भी शीर्ष अदालत के इस निर्णय की सराहना की है ।

उन्होंने कहा, ‘‘शीर्ष अदालत का यह एक बेहतर निर्णय है । मुझे यही निर्णय आने की उम्मीद थी क्योंकि तार्किक रूप से कुछ और नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह फैसला आने में दस साल लग गए । मुख्य सूचना आयुक्त ने इसे बरकरार रखा था और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इसे बरकरार रखा था। अब उच्चतम न्यायालय ने भी इसे बरकरार रखा है । सभी लोक सेवक जिन्हें सरकार की तरफ से वेतन दिया जाता है वह लोकसेवा है, उनकी स्थिति क्या है यह मायने नहीं रखता है । आपको अपने काम के लिए जिम्मेदार होने की जरूरत है । मैं प्रधान न्यायाधीश और अदालत को इस निर्णय के लिए बधाई देता हूं ।’’

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने भी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत किया है । उन्होंने कहा, ‘‘मैं उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत करता हूं। यह आरटीआई अधिनियम की जीत है।’’ एक अन्य कार्यकर्ता अजय दुबे ने शीर्ष अदालत के फैसले को ऐतिहासिक कहा। हालांकि, न्यायालय की इस टिप्पणी पर उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि आरटीआई अधिनियम को निगरानी के औजार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। 

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