रोहित कौशिक
आज 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस है. यह दिन हमें पर्यावरण से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित करता है. आज जिस तरह से पर्यावरण को हानि पहुंचाई जा रही है, वह ओजोन परत के लिए शुभ नहीं है. पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली अपनाकर ही हम ओजोन परत को बचा सकते हैं.
इस साल मार्च में कोपरनिकस एटमॉस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस के वैज्ञानिकों को आर्कटिक क्षेत्र के ऊपर एक बड़ा खाली स्थान दिखाई दिया. यह कटाव कुछ ही दिनों में एक बड़े क्षेत्र में बदल गया. माना जा रहा था कि यह छेद उत्तरी ध्रुव पर कम तापमान के कारण बना. यह छेद इतना बड़ा था कि इसका आकार लगभग ग्रीनलैंड के बराबर था. लेकिन अप्रैल में पता चला कि यह छेद कहीं नजर नहीं आ रहा है. आर्कटिक के ऊपर ओजोन परत का छेद भर जाने का कोरोना वायरस की वजह से लगाए गए लॉकडाउन से कोई लेना-देना नहीं था. यह छेद बेहद सशक्त और असाधारण वायु तथा दीर्घकाल में पोलर वोर्टेक्स के कारण संभव हुआ था. वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका बंद होना केवल वार्षिक चक्र के कारण संभव हुआ है किंतु इसे स्थायी उपचार नहीं माना जा सकता.
कुछ समय पूर्व ओजोन परत पर काम करने वाले कोलोरेडो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने उपग्रहों के जरिये किए गए अध्ययन में पाया था कि कुछ जगहों पर पिछले दस साल के दौरान ओजोन के स्तर में स्थिरता बनी रही है या फिर इसमें मामूली बढ़ोत्तरी हुई है. संपूर्ण विश्व में ओजोन परत पर हुए अन्य शोधों के द्वारा भी यह बात सामने आई कि 1997 के आस-पास ओजोन क्षय की दर कम हो गई थी. वैज्ञानिकों ने इस संबंध में 25 साल के आंकड़ों का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि लगातार खराब होती जा रही ओजोन परत की स्थिति कुछ जगहों पर अब बेहतर है. वैज्ञानिकों का मानना है कि कुछ जगहों पर ओजोन परत की स्थिति में सुधार 1987 की अंतरराष्ट्रीय मांट्रियल संधि के कारण ही संभव हुआ है. वैज्ञानिकों ने सत्तर के दशक में यह खोजा था कि ओजोन परत पतली हो रही है. 1980 के आस-पास यह बहुत स्पष्ट हो गया था कि ओजोन परत का तेजी से क्षरण हो रहा है. इसके लिए विभिन्न मानवनिर्मित कारक जिम्मेदार थे. विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के द्वारा यह बात सामने आई कि क्लोरो फ्लोरो कार्बन नामक गैस ओजोन परत को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रही है. यह गैस मुख्यत: वातानुकूलन एवं प्रशीतन (रेफ्रिजरेशन) में काम आती है. इसके अतिरिक्त वातावरण में ऊंचाई पर उड़ने वाले जेट विमान भी क्लोरो फ्लोरो कार्बन छोड़ते हैं. इस गैस के द्वारा ओजोन परत को हानि पहुंचते देख वैज्ञानिक जगत चिंतित था. इसलिए इस तरह की गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए 1987 में अंतरराष्ट्रीय मांट्रियल संधि को लागू किया गया.
धरती पर जीवन के लिए वातावरण में ओजोन की उपस्थिति जरूरी है. यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर ऐसे विभिन्न रासायनिक तत्वों को बचाती है जो कि जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक होते हैं. जब वातावरण में आक्सीजन, पराबैंगनी किरणों को सोखती है तो रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा ओजोन का निर्माण होता है. ओजोन परत के क्षरण से सूर्य से निकलने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों धरती पर पहुंचकर मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों तथा अन्य बहुत सारी चीजों को नुकसान पहुंचाती हंै. पराबैंगनी किरणों से त्वचा कैंसर, फेफड़ों का कैंसर, शरीर की प्रतिरक्षक प्रणाली का कमजोर होना, आंखों के रोग, डीएनए का टूटना तथा सन बर्न जैसे रोग हो जाते हैं.
सर्वप्रथम स्वीडन ने 23 जनवरी 1978 को क्लोरो फ्लोरो कार्बन वाले ऐरोसोल स्प्रे को प्रतिबंधित किया था. इसके बाद कुछ अन्य देशों जैसे अमेरिका, कनाडा तथा नार्वे ने भी यही कदम उठाए. लेकिन यूरोपियन समुदाय ने इस तरह के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. यहां तक कि अमेरिका में भी प्रशीतन (रेफ्रिजरेशन) जैसे उद्देश्यों के लिए क्लोरो फ्लोरो कार्बन का उपयोग होता रहा. मांट्रियल संधि के बाद ही सभी देशों ने क्लोरो फ्लोरो कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लिए गंभीरता से सोचा.
वातावरण में सभी जगह ओजोन की सांद्रता बराबर नहीं रहती है. उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ओजोन की सांद्रता अधिक होती है जबकि ध्रुवीय क्षेत्रों में इसकी सांद्रता कम होती है. वातावरण में ओजोन फोटो केमिकल प्रक्रिया के द्वारा लगातार बनती तथा नष्ट होती रहती है और इस तरह से इसका संतुलन बना रहता है. लेकिन मानवनिर्मित प्रदूषण के द्वारा वातावरण में ओजोन का संतुलन गड़बड़ा जाता है और यह बहुत सारी समस्याएं पैदा करता है. यह माना जाता है कि वातावरण में ओजोन की हर एक प्रतिशत कमी पर विभिन्न रोग बढ़ने की संभावना दो प्रतिशत अधिक हो जाती है. ज्यादातर विकसित देश ही ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों का उत्सर्जन अधिक करते हैं. अब समय आ गया है कि विश्व के सभी देश पर्यावरण को बचाने का सामूहिक प्रयास करें.