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शरणार्थी अफगान सिख अपने भविष्य को लेकर चिंतित

By भाषा | Updated: September 15, 2021 22:33 IST

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नयी दिल्ली, 15 सितंबर अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत आये अफगान सिख बलदीप सिंह को अपने परिवार का पेट भरने के लिए नौकरी मिलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

सिंह हिंदी समेत तीन भाषाओं की जानकारी रखते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें नौकरी नहीं मिल पा रही है।

इस समय न्यू महावीर नगर में रह रहे 24 वर्षीय सिंह ने कहा कि यह स्थिति न केवल उन सिखों की है जो 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान का कब्जा होने के बाद पहुंचे थे, बल्कि उनकी भी है जो इससे पहले देश छोड़कर आये थे।

यह पहली बार नहीं है जब बलदीप सिंह ने अफगानिस्तान छोड़ा है। पिछले साल 25 मार्च को, उनकी मां की एक आतंकवादी हमले में उस समय मौत हो गई थी, जब वह काबुल के गुरु हर राय साहिब गुरुद्वारे में अपने कमरे के बाहर थीं। उसी साल मई में बलदीप सिंह अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के डर से भारत के लिए रवाना हो गए थे।

उन्होंने कहा कि हालांकि, कुछ महीने बाद, वह काबुल लौट आये। उन्होंने कहा, ‘‘यह वो जगह है जहां मेरा जन्म हुआ था। यह वही जगह है जहां मेरी मां की मृत्यु हुई थी। मैं कहीं और कैसे हो सकता था।’’

लेकिन तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने का मतलब था, बलदीप सिंह को फिर से काबुल से भागना पड़ा, और इस बार वह नहीं जानते कि क्या कभी वापस जा पाएंगे या नहीं।

अपने मोबाइल फोन पर अपनी मां की तस्वीर को देखते हुए उन्होंने कहा, ‘‘वह अरदास करने के लिए नीचे गई थी और एक आतंकवादी हमले में मारी गई। लगभग 25 लोगों की मौत हो गई थी।’’

उन्होंने कहा कि उनके पिता, दादी, दो भाइयों और चाचा सहित परिवार पिछले साल मई में अफगानिस्तान से चला आया था। उन्होंने कहा, ‘‘हमले ने हमें झकझोर दिया था।’’ देश के मौजूदा हालात पर सिंह ने कहा, ‘‘ये हर दिन बदतर होते जा रहे है। कल बंदूक की नोक पर तालिबान ने एक सिख को अगवा कर लिया।’’

लगभग 73 अफगान सिख भारत आए। कुछ परिवार पंजाब के लिए रवाना हो गए हैं जहां उनके रिश्तेदार हैं। दिल्ली के लोग न्यू महावीर नगर में गुरुद्वारा गुरु अर्जन देव की मदद पर निर्भर हैं। छावला क्षेत्र में आईटीबीपी केन्द्र पृथकवास की अवधि पूरी करने के बाद से कम से कम छह ऐसे परिवार गुरुद्वारे में रह रहे हैं।

बलदीप सिंह ने कहा कि उन्होंने कुछ महीने पहले मोबाइल कवर बेचना शुरू किया था, लेकिन पिछले साल लॉकडाउन के कारण उनका कामकाज ठप हो गया।

काबुल में औषधीय जड़ी-बूटी बेचने वाले कृपाल सिंह खाली हाथ भारत आये। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे एक जोड़ी कपड़े पैक करने का समय भी नहीं मिला।’’

तीन बच्चों के पिता ने कहा, ‘‘वहां मेरी अच्छी कमाई थी। यहां मेरे पास कुछ भी नहीं है लेकिन मैं जिंदा हूं। मुझे जो भी काम मिलेगा, मैं करूंगा। प्राथमिकता जीवित रहना है।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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