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‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को भंग करने के लिये ‘सार्वजनिक अव्यवस्था’ जरूरी : न्यायालय

By भाषा | Updated: August 2, 2021 20:13 IST

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नयी दिल्ली, दो अगस्त उच्चतम न्यायालय ने एक व्यक्ति के खिलाफ तेलंगाना सरकार का नजरबंदी का आदेश खारिज करते हुए सोमवार को कहा कि ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को भंग करने के लिए “निश्चित रूप से सार्वजनिक व्यवस्था होनी चाहिए” जिससे व्यापक रूप से समाज प्रभावित हो। आरोपी व्यक्ति के खिलाफ धोखाधड़ी और जालसाजी के कई मामले दर्ज हैं।

शीर्ष अदालत ने कहा कि तेलंगाना खतरनाक गतिविधि निरोधक अधिनियम (टीपीडीएए) के तहत नजरबंदी का आदेश गहनता से पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि यह बड़े पैमाने पर सार्वजनिक नुकसान या खतरे की आशंका को देखते हुये नहीं बल्कि नजरबंद व्यक्ति द्वारा उसके खिलाफ दर्ज पांच प्राथमिकी में से प्रत्येक में अग्रिम जमानत/जमानत मिल जाने के कारण जारी किया गया था।

न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन और न्यायमूर्ति बी आर गवई ने एक महिला की याचिका पर यह टिप्पणी की जिसने टीपीडीडीए के तहत उसके पति को हिरासत में लेने के आदेश के खिलाफ उसकी याचिका तेलंगाना उच्च न्यायालय द्वारा खारिज किए जाने को चुनौती दी थी।

महिला के पति के खिलाफ धोखाधड़ी, जालसाजी, आपराधिक विश्वासघात को लेकर कई प्राथमिकी दर्ज की गई हैं लेकिन उसे इन सभी मामलों में अग्रिम जमानत/जमानत हासिल करने में सफलता मिली है।

पीठ ने कहा, “हम, इसलिए इस आधार पर नजरबंदी का आदेश रद्द करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, याचिकाकर्ता की तरफ से पेश हुए सुविज्ञ वकील द्वारा बताए गए किसी दूसरे आधार की तह में जाना अनावश्यक है। आक्षेपित फैसले को दरकिनार किया जाता है और हिरासती व्यक्ति की मुक्त करने का आदेश दिया जाता है। इसी के मुताबिक, याचिका को स्वीकार किया जाता है।”

पीठ ने कहा कि इस मामले के तथ्य में साफ है कि ज्यादा से ज्यादा यह संभावित आशंका व्यक्त की गई है कि अगर हिरासत में लिए गए व्यक्ति को छोड़ा जाता है तो वह भोले-भाले लोगों को धोखा देगा जिससे कानून-व्यवस्था की स्थिति को खतरा होगा।

पीठ ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता की ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को भंग करने के लिये बदले में सार्वजनिक अव्यवस्था होनी चाहिए। महज धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात जैसे कानून के उल्लंघन से निश्चित रूप से ‘कानून-व्यवस्था’ प्रभावित होती है लेकिन इससे पहले कि इसे ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को प्रभावित करने वाला कहा जाए, इसे व्यापक रूप से समुदाय या आम लोगों को प्रभावित करने वाला होना चाहिए।”

पीठ ने कहा कि यह राज्य के लिये दिए गए जमानत आदेशों के खिलाफ अपील करने और/या उन्हें रद्द करने के लिये एक अच्छा आधार हो सकता है लेकिन “निश्चित रूप से यह ऐहतियाती नजरबंदी कानून के तहत आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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