विधायिेका का सदस्य आपराधिक कानूनों के दंड से परे होने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता: न्यायालय

By भाषा | Updated: July 28, 2021 23:14 IST2021-07-28T23:14:07+5:302021-07-28T23:14:07+5:30

Member of legislature cannot claim privilege of being beyond the punishment of criminal laws: Court | विधायिेका का सदस्य आपराधिक कानूनों के दंड से परे होने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता: न्यायालय

विधायिेका का सदस्य आपराधिक कानूनों के दंड से परे होने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता: न्यायालय

नयी दिल्ली/तिरुवनंतपुरम, 28 जुलाई उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि निर्वाचित विधानसभा का कोई भी सदस्य आपराधिक कानूनों के दंड से परे होने के विशेषाधिकार या उससे ऊपर होने का दावा नहीं कर सकता। यह कानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। न्यायालय ने कहा कि सदन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के कृत्यों की तुलना अभिव्यक्ति की आजादी के साथ नहीं की जा सकती है।

उच्चतम न्यायालय ने 2015 में केरल विधानसभा में हुए हंगामे के सिलसिले में एलडीएफ के छह नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले वापस लेने के लिये केरल सरकार की अपील बुधवार को खारिज कर दी। न्यायालय ने कहा कि विशेषाधिकार और उन्मुक्ति आपराधिक कानून से छूट का दावा करने का “रास्ता नहीं” हैं जो हर नागरिक के कृत्य पर लागू होता है।

न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक संपत्ति नष्ट करने के कृत्यों की विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या विपक्ष के सदस्यों को वैध रूप से उपलब्ध विरोध के तरीकों से तुलना नहीं की जा सकती।

न्यायालय ने कहा कि सदन के अंदर विधायकों द्वारा बजट पेश किए जाने के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने के लिये सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के कथित कृत्य को “उनके विधायी कार्यों के निष्पादन के लिए आवश्यक” नहीं माना जा सकता।

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने कहा, “सदस्यों के कृत्य ने संवैधानिक साधनों की सीमा का उल्लंघन किया है और इसलिए यह संविधान के तहत प्रदत्त गारंटीशुदा विशेषाधिकारों के दायरे में नहीं है।”

शीर्ष अदालत ने दो अलग-अलग याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। इनमें से एक याचिका राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय के 12 मार्च के आदेश के खिलाफ दायर की थी। उच्च न्यायालय ने इस बारे में आपराधिक मामले वापस लेने की याचिका को खारिज कर दिया था।

विधानसभा में 13 मार्च, 2015 को उस समय अप्रत्याशित घटना हुई थी, जब विपक्ष की भूमिका निभा रहे एलडीएफ के सदस्यों ने तत्कालीन वित्त मंत्री के एम मणि को राज्य का बजट पेश करने से रोकने की कोशिश की थी। मणि बार रिश्वत घोटाले में आरोपों का सामना कर रहे थे।

तत्कालीन एलडीएफ सदस्यों ने अध्यक्ष की कुर्सी को उनके आसन से फेंकने के साथ ही पीठासीन अधिकारी की मेज पर लगे कंप्यूटर, की-बोर्ड और माइक जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी कथित रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। इस वजह से 2.20 लाख रुपये का नुकसान हुआ था।

इस संबंध में भारतीय दंड संहिता की धारा 447 (आपराधिक अतिक्रमण) समेत अन्य धाराओं के साथ ही सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम के कथित आरोपों में एक मामला दर्ज किया गया था।

इस बीच उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद विपक्षी दल कांग्रेस ने बुधवार को केरल के शिक्षा मंत्री सिवनकुट्टी के इस्तीफे की मांग की।

मांग को खारिज करते हुए, 2015 में विपक्षी वाम विधायकों द्वारा की गई जबरदस्त हिंसा में कथित रूप से सबसे आगे रहे सिवनकुट्टी ने कहा कि विधानसभा में आंदोलन वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ) का निर्णय था और वे उस दिन उस निर्णय को लागू कर रहे थे।

मंत्री का बचाव करते हुए, एलडीएफ के संयोजक और माकपा के कार्यवाहक सचिव ए विजयराघवन ने कहा कि शीर्ष अदालत ने मंत्री के खिलाफ किसी भी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं की है।

विजयराघवन ने संवाददाताओं से कहा, ‘‘एक मामला (हंगामे का) है। उस मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है।’’

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रमेश चेन्निथला ने उच्चतम न्यायालय के आदेश के मद्देनजर, मुख्यमंत्री पिनराई विजयन से सिवनकुट्टी का इस्तीफा तत्काल मांगने का आग्रह किया। चेन्नीथला ने हंगामे में शामिल विधायकों के विरुद्ध कानूनी लड़ाई छेड़ी थी।

कांग्रेस के के. सुधाकरन, वी डी सतीशन समेत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) के अन्य नेताओं तथा मुस्लिम लीग के नेता पी. के. कुन्हालिकुट्टी और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के. सुरेंद्रन ने भी सिवनकुट्टी से तत्काल इस्तीफा देने को कहा है।

उन्होंने कहा कि सिवनकुट्टी को मंत्री के पद रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। हालांकि, सिवनकुट्टी ने संकेत दिया है कि वह इस्तीफा नहीं देंगे क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने ऐसा कोई फैसला नहीं सुनाया है जिससे उन्हें इस्तीफा देना पड़े। न्यायालय ने 74 पृष्ठों के फैसले में कहा कि निर्वाचित विधानसभा का कोई भी सदस्य आपराधिक कानूनों के दंड से परे होने के विशेषाधिकार या उससे ऊपर होने का दावा नहीं कर सकता। यह कानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं।

पीठ ने कहा, “विशेषाधिकार और छूट देश के सामान्य कानून, विशेष रूप से आपराधिक कानून, के इस मामले में छूट का दावा करने का तरीका नहीं हैं। यह कानून हर नागरिक के कदम को नियंत्रित करता है।”

पीठ ने कहा कि संसद और न्यायालय दोनों में इस बात को लेकर मान्यता और सर्वसम्मति है कि विरोध के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले कृत्यों को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

पीठ ने कहा, ‘‘इन आरोपों के मामले में अभियोग वापस लेने की अनुमति देना न्याय की सामान्य प्रक्रिया में अवैध कारणों से हस्तक्षेप करना होगा। इन आरोपों की जांच के बाद दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के तहत एक अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है और संज्ञान लिया गया है।’’

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 का संदर्भ दिया जो सांसदों व विधायकों के विशेषाधिकार व छूट से संबद्ध है और कहा कि यह मान्यता कि संसद और राज्य विधानसभा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी, ऐसी परिस्थिति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है जिसमें कानून निर्माता अपने दायित्वों व कार्यों को प्रभावी तरीके से निष्पादित कर सकें।

पीठ ने कहा, ‘‘अगर हम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के कर्तव्यों के बजाय केवल अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हम सबसे जरूरी चीज को नजरअंदाज करेंगे।’’ पीठ ने इस बात पर भी गौर किया कि लोक अभियोजक स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए बाध्य है।

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