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लखनऊ: अपने खर्चे पर कोरोना वायरस और नफरत को सैनिटाइज़ कर रही उज़्मा की कहानी

By अजीत कुमार सिंह | Updated: June 6, 2020 22:08 IST

ये सैय्यद उज़्मा परवीन काले रंग का बुर्का पहने, पीठ पर सोडियम हाइपोक्लोराइड से भरा पीले रंग का टैंक लादे गली लखनऊ के मोहल्लों को सैनिटाइज़ कर रही है. लॉकडाउन 1 के वक्त से ही उज़्मा ये काम कर रही है. हर दिन 5-6 गलियों को सैनिटाइज़ कर लेती हैं.

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ठळक मुद्देउज़्मा लखनऊ की गली-गली घूम कर कर हाथों से चलने वाली स्प्रे मशीन चलाती हैं. अब तक उज़्मा अपनी जेब से एक लाख से ज़्यादा रुपये खर्च कर चुकी हैं.

लखनऊ: काले रंग का बुर्का पहने, चेहरे पर मास्क लगाएं हुए एक मुस्लिम महिला पीठ पर सोडियम हाइपोक्लोराइड से भरा पीले रंग का टैंक लादे गली मोहल्लों को सैनिटाइज़ कर रही है. ये सैय्यद उज़्मा परवीन हैं. इस सैनीटाइजेशन में आने वाला सारा खर्च उज्मा खुद उठाती हैं. कोरोना वायरस से इस लड़ाई में उज़्मा ने अपने बचत के पैसे लगा दिए हैं. उज़्मा कहती है " मैं लॉकडाउन 1 के वक्त से ही लखनऊ की गलियों को सैनिटाइज़ कर रही है. मैं हर दिन 5-6 गलियों को सैनिटाइज़ कर लेती हूं." 

उज़्मा जब सैनिटाइज़ करने बाहर निकलती है तो उनके लिए मंदिर-मस्जिद में कोई भेद नहीं होता है. उज़्मा कहती हैं "मंदिर हो या गुरूद्वारा, इनसे लोगों की आस्था जुड़ी होती. इन जगहों को सैनिटाइज़ करना जरूरी है जिससे लोग संक्रमण से बच सकें." उज्मा कहती हैं " अपने सारे काम करते हुए, परिवार को देखते हुए समाज का भी काम करना चाहती हूं. जिस तरह से मेरी फैमिली, समाज मेरे अहम है वैसे ही मेरा देश भी मेरे लिए अहम हैं."

उज़्मा लखनऊ की गली-गली घूम कर कर हाथों से चलने वाली स्प्रे मशीन चलाती हैं. अब तक उज़्मा अपनी जेब से एक लाख से ज़्यादा रुपये खर्च कर चुकी हैं. कई लोग उज़्मा को ये काम करते देख कर उन्हें नगर निगम की कर्मचारी समझ लेते हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ी, सादतगंज की रहने वाली उज़्मा ने घनी बस्ती वाले ठाकुरगंज, याहियागंज, चौक, बालागंज और अमीना इलाकों को भी सैनिटाइज़ किया है. 

उज़्मा को ये काम करने के लिए अपने पति और ससुराल वालों को मनाना आसान नहीं था. उज़्मा कहती हैं "मेरी लगन देख कर मेरे पति और सास-ससुर तैयार हो गए."

उज़्मा ने 27 अप्रैल से सैनिटाइजेशन करना शुरू किया. उज्मा पहले दिन को याद करते हुए कहती हैं, " मुझे याद है वो पहला दिन जब सुबह 7 बजे मैं अपने दोनों बच्चों को सोते हुए छोड़ कर निकली थी." उज़्मा को अपने ही समाज के लोगों से ताने भी सुनने को मिले, लोगों ने कहा " अगर आदमियों के काम औरतें करे तो इससे अच्छा संदेश नहीं जाएगा." 

जब उज़्मा घर के बाहर निकली तो शुरूआत में उज़्मा को ये काम करने में मुश्किलें आईं. वो कहती हैं "पहले लोगों ने उन्हें  घूरा, लोगों को अजीब लगा था कि एक लड़की गली-कूचों में घूम कर धर्मिक स्थलों को सैनिटाइज़ कर रही है. अब इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता."  ज़्यादा एरिया सैनिटाइज़ हो सके इसके उज़्मा अपनी स्कूटी का इस्तेमाल करती हैं.  

स्कूटी नये जमाने का चलन है. उज़्मा भी नये ज़माने की है. कोरोना काल में जब कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर फैले ज्ञान पर भरोसा कर, मुसलमानों को कोरोना वायरस फैलाने का दोषी मान लिया है. कुछ सियासतदानों ने कोरोना वायरस के जरिए 'समाजों में दूरी' बढ़ाने, ज़हर घोलने की कोशिश भी की. लेकिन भरोसा रखें जब तक उज़्मा जैसे लोग हैं कोरोना वायरस हो या कोई और ज़हर वो उसे सैनिटाइज़ करती रहेंगे. 

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