राम लल्ला की ओर से दायर मुकदमा बेवक्त नहीं क्योंकि उनकी लगातार पूजा हो रही थी : सुप्रीम कोर्ट
By भाषा | Updated: November 10, 2019 01:08 IST2019-11-10T01:08:30+5:302019-11-10T01:08:30+5:30
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मुसलमान पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि राम लल्ला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त है क्योंकि घटना 1949 की है और याचिका 1989 में दायर की गयी है।

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)
उच्चतम न्यायालय ने शनिवार को कहा कि 1989 में ‘भगवान श्रीराम लल्ला विराजमान’ की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी क्योंकि अयोध्या में विवादित मस्जिद की मौजूदगी के बावजूद उनकी ‘पूजा-सेवा’ जारी रही।
‘नियंत्रण का कानून’ तकलीफ में आये पक्ष को एक तय सीमा के भीतर अपनी ओर से मुकदमा/अपील दायर करने को कहता है।
22/23 दिसंबर, 1949 को मुख्य गुंबद के नीचे कथित रूप से प्रतिमा रखे जाने के बाद संपत्ति जब्त कर ली गयी और सुन्नी बक्फ बोर्ड को कथित रूप से उस जमीन से हटा दिया गया। उसे इस घटना के 12 साल के भीतर शिकायत दर्ज कराने का अधिकार था।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मुसलमान पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि राम लल्ला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त है क्योंकि घटना 1949 की है और याचिका 1989 में दायर की गयी है।
शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के इस हिस्से को अपने फैसले में बरकरार रखा कि मुख्य गुम्बद के नीचे का हिस्सा भगवान राम की जन्मभूमि है।
पीठ ने कहा कि यह तय करते हुए कि राम लल्ला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त तो नहीं थी, हमें एक बात का ख्याल रखना होगा कि अन्य मामलों में राम लल्ला को पक्ष नहीं बनाया गया था। यानि उपासक गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपनी अर्जियों में राम लल्ला को पक्ष नहीं बनाया था।
उसने कहा कि मुकदमा संख्या पांच में दोनों, पहले (राम लल्ला) और दूसरे (जन्मभूमि) का अपना-अपना न्यायिक व्यक्तित्व है। पहले पक्ष का न्यायिक व्यक्तित्व उपासकों से अलग है। पीठ ने कहा कि 29 दिसंबर, 1949 में विवादित संपति की जब्ती के बावजूद महत्वपूर्ण बात यह है कि राम लल्ला की ‘सेवा-पूजा’ कभी बंद नहीं हुई।