राजपुताना की बेटी लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत...राजस्थानी भाषा की गरिमा बढ़ाने और महिलाओं के लिए आवाज उठाने का जाता है श्रेय
By अनुभा जैन | Published: August 11, 2022 10:44 AM2022-08-11T10:44:56+5:302022-08-11T10:44:56+5:30
रावतसर की रानी बनीं लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत का विवाह रावतसर के प्रमुख रावत तेज सिंह से हुआ था, जो तत्कालीन बीकानेर राज्य के चार प्रमुखों में से एक थे। अपने पति और पिता के प्रोत्साहन से, चूड़ावत ने 1962 में सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया।
रावतसर की रानी, लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत राजस्थानी विद्वानों और राजनितिज्ञों के क्षेत्र में पहचान रखती एक प्रसिद्ध नाम हैं। 1972 से 1978 तक राज्यसभा सदस्य के रूप में और 1962, 1967 और 1980 में कांग्रेस के टिकट पर भीम, देवगढ़ से तीसरी, चौथी और सातवीं राजस्थान विधानसभाओं के सदस्य रह चुकी चूड़ावत राजस्थान की पहली महिला राजनेताओं में से एक थीं जिन्होंने राजस्थानी को राजभाषा बनाने के लिए अथक प्रयास किया। राजस्थानी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
वह सामंती युग में पर्दा (घूंघट) प्रथा को छोड़ने के लिए जानी जाती थीं और उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के उत्थान के लिए बिताया, खासकर अपने लेखन के माध्यम से। सुप्रसिद्ध लेखक और कवि, चूड़ावत को गुर्जर समुदाय के देवनारायण बगदावत की महागाथा लिखने के लिए वर्ष 1984 में प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
स्फूर्तिवान चूड़ावत आधुनिक विचारधारा से परिपूर्ण पर साथ ही राजस्थानी रीति-रिवाजों और परंपराओं की महान अनुयायी भी थीं। पारंपरिक राजपूती पोशाक में जब चुडावत नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त करने गई तो इंदिरा गांधी ने उन्हें प्यार से गले लगाया और उनसे कहा, लक्ष्मी, परंपरा और संस्कृति के प्रति आपका लगाव निश्चित रूप से आपको अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगा।
चूड़ावत के प्रयासों से ही शिक्षा, साहित्य और मीडिया की मुख्यधारा में राजस्थानी भाषा की स्थापना हुई और राजस्थान राज्य विधानसभा में राजस्थानी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया गया, हालांकि यह अमल में नहीं आ पाया।
इसी प्रकार बीकानेर राजस्थान अकादमी की स्थापना हुई, राजस्थानी भाषा को केन्द्रीय साहित्य अकादमी में स्थान दिया गया, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में राजस्थानी भाषा को शामिल किया गया तथा ऑल इंडिया रेडियो और टेलीविजन पर राजस्थानी कार्यक्रम शुरू किए गए।
प्रगतिशील मान्यताओं के साथ राजस्थानी साहित्यिक लोककथाओं को बेहद करीब से जानने वाली चूड़ावत ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के राजस्थानी और हिंदी में लघु कथाओं और कविताओं की 37 पुस्तकें लिखी हैं। उनके लेखन में राजस्थान की राजनीति में महिलायें, रामप्यारी की रिसाला जैसे निबंध और गिर ऊंचा, ऊंचा घर, मंझल रात जैसी कहानी की किताबें शामिल हैं। उन्होंने रेगिस्तान की राजकुमारी की प्रेम कहानी मोमल का अंग्रेजी संस्करण भी लिखा है। चुडावत ने लेनिन की जीवनी का राजस्थानी भाषा में अनुवाद भी किया।
राजस्थानी भाषा में रूसी कहानियों के अनुवाद और उन्हें किताब रूप में हिंदू कुश के उस पार शीर्षक से संकलित करने के लिए चूड़ावत को 1965 में प्रतिष्ठित सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला। चूड़ावत के लेखन कौशल से प्रभावित होकर, फ्रांसीसी लेखक फ्रांसेस टाफ्ट ने चूड़ावत पर फ्रौम पर्दा टू पीपल नाम से एक पुस्तक लिखी। चूड़ावत को वर्ष 2012 में राजस्थान रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
2012 में साहित्य महामहोपाध्याय, टेसिटरी गोल्ड अवार्ड, महाराणा कुंभा जैसे कई नामी पुरस्कारों से सम्मानित, चूड़ावत का जन्म 1916 में हुआ था और उनका पालन-पोषण भीम, देवगढ़ में हुआ, जो तत्कालीन मेवाड़ राज्य का एक प्रमुख ठिकाना या संपत्ति था।
चूड़ावत 13 साल की उम्र तक टॉम बॉय या लड़कों की तरह सिर पर पगड़ी बांधती और पैंट शर्ट पहनती थी। उनके पिता उन्हें प्यार से लक्ष्मण सिंह कह कर पुकारते। उनके पिता श्री विजय सिंह, देवगढ़ के रावत, ने उदार वातावरण में चूड़ावत का पालन-पोषण तो किया ही लेकिन उन्हें नैतिक मूल्यों को भी आत्मसात करवाया। उस दौर में लड़कियों के बाहर जाने और पढ़ने पर पाबंदी थी। इसलिए, चूड़ावत को पढ़ाने के लिए प्रख्यात शिक्षकों की नियुक्ति की गई। उन्हें अपने भाई के साथ घुड़सवारी भी सिखाई गई थी।
चूड़ावत ने टाइपराइटर पर टाइप करना सीखा और अपनी कहानियों, कविताओं को वे स्वयं ही सहजता से टाइप करतीं। वह एक फुटबॉल, बैडमिंटन खिलाड़ी और एक निशानेबाज भी थीं।
रावतसर की रानी बनीं चूड़ावत का विवाह रावतसर के प्रमुख रावत तेज सिंह से हुआ था, जो तत्कालीन बीकानेर राज्य के चार प्रमुखों में से एक थे। अपने पति और पिता के प्रोत्साहन से, चूड़ावत ने 1962 में सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने अपने पति के उपनाम राठौड़ को त्याग दिया और अपने माता-पिता के उपनाम चूड़ावत का इस्तेमाल किया।
चूड़ावत और राजमाता गायत्री देवी ने 1962 में एक साथ राजनीति में प्रवेश किया। गायत्री देवी ने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की, वहीं चूड़ावत अपने मायके देवगढ़ से विधायक बनी, जो अब राजसमंद जिले में है। राजनीति में आने के बाद चूड़ावत ने भीम और रावतसर के लिए बेहद प्रशंसनीय कार्य और इनको आगे ले जाने में अपना योगदान दिया।
1980 में, वह राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में लौट आईं और 3,366 मतों के अंतर से विधायक के रूप में चुनी गईं। हालांकि, कम वोटिंग अंतर से निराश चुडावत ने घोषणा की कि वह और चुनाव नहीं लड़ेंगी और अंततः उन्होंने 1985 में राजनीति छोड़ दी।
1958 में जापान के हिरोशिमा में विश्व शांति सम्मेलन का दौरा करने वाली चूड़ावत ने एक भारतीय प्रतिनिधि के रूप में, शिकागो विश्वविद्यालय में राजस्थान की संस्कृति पर एक पेपर पढ़ा। उन्होंने 1978 में न्यूयॉर्क में आयोजित संयुक्त राष्ट्र संगठन सम्मेलन के साथ ताशकंद के एफ्रो एशियाई लेखक सम्मेलन में भी भाग लिया। 1976 से 2014 तक चूड़ावत ने राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया।
चूड़ावत का 98 वर्ष की आयु में 2014 में निधन हो गया, लेकिन वह राजस्थानी भाषा और साहित्य के साथ अपनी अविश्वसनीय भागीदारी और ग्रामीण महिलाओं की आवाज के रूप में हमेशा राजस्थान के लोगों के दिलों में रहेंगी।