कश्मीर के हिन्दू समुदाय की आस्था को दर्शाता है क्षीर भवानी

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: June 3, 2025 10:28 IST2025-06-03T10:28:08+5:302025-06-03T10:28:16+5:30

Ksheer Bhavani Temple: इन्होंने अपनी यात्रा के अधिकांश दिन देवी के चरणों में व्यतीत किए। प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहां भक्तजन काफी मात्रा में आते हैं।

Ksheer Bhavani reflects the faith of the Hindu community of Kashmir | कश्मीर के हिन्दू समुदाय की आस्था को दर्शाता है क्षीर भवानी

कश्मीर के हिन्दू समुदाय की आस्था को दर्शाता है क्षीर भवानी

Ksheer Bhavani Temple: क्षीर भवानी मंदिर श्रीनगर से 27 किलोमीटर दूर तुलमुला गांव में स्थित है। ये मंदिर मां क्षीर भवानी को समर्पित है। यह मंदिर कश्मीर के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। मां दुर्गा को समर्पित इस मंदिर का निर्माण एक बहती हुई धारा पर किया गया है। इस मंदिर के चारों ओर चिनार के पेड़ और नदियों की धाराएं हैं, जो इस जगह की सुंदरता पर चार चांद लगाते हुए नज़र आते हैं। ये मंदिर, कश्मीर के हिन्दू समुदाय की आस्था को बखूबी दर्शाता है।

महाराग्य देवी, रग्न्या देवी, रजनी देवी, रग्न्या भगवती इस मंदिर के अन्य प्रचलित नाम है। इस मंदिर का निर्माण 1912 में महाराजा प्रताप सिंह द्वारा करवाया गया जिसे बाद में महाराजा हरी सिंह द्वारा पूरा किया गया।

इस मंदिर की एक ख़ास बात ये है कि यहां एक षट्कोणीय झरना है जिसे यहां के मूल निवासी देवी का प्रतीक मानते हैं। इस मंदिर से जुड़ी एक प्रमुख किवदंती ये है कि सतयुग में भगवान श्री राम ने अपने निर्वासन के समय इस मंदिर का इस्तेमाल पूजा के स्थान के रूप में किया था।

निर्वासन की अवधि समाप्त होने के बाद भगवान राम द्वारा हनुमान को एक दिन अचानक ये आदेश मिला कि वो देवी की मूर्ति को स्थापित करें। हनुमान ने प्राप्त आदेश का पालन किया और देवी की मूर्ति को इस स्थान पर स्थापित किया, तब से लेके आज तक ये मूर्ति इसी स्थान पर है।

इस मंदिर के नाम से ही स्पष्ट है यहां क्षीर अर्थात ‘खीर’ का एक विशेष महत्त्व है और इसका इस्तेमाल यहां प्रमुख प्रसाद के रूप में किया जाता है। क्षीर भवानी मंदिर के सन्दर्भ में एक दिलचस्प बात ये है कि यहां के स्थानीय लोगों में ऐसी मान्यता है कि अगर यहां मौजूद झरने के पानी का रंग बदल कर सफ़ेद से काला हो जाये तो पूरे क्षेत्र में अप्रत्याशित विपत्ति आती है।

प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ (मई-जून) के अवसर पर मंदिर में वार्षिक उत्सव का आयोजन किया जाता है। यहां मई के महीने में पूर्णिमा के आठवें दिन बड़ी संख्या में भक्त एकत्रित होते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस शुभ दिन पर देवी के कुंड का पानी बदला जाता है। ज्येष्ठ अष्टमी और शुक्ल पक्ष अष्टमी इस मंदिर में मनाये जाने वाले कुछ प्रमुख त्यौहार हैं।

माता क्षीर भवानी के मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां पर हनुमान जी माता को जल स्वरूप में अपने कमंडल में लाए थे। यह भी कहा जाता है कि जिस दिन इस जल कुंड का पता चला वह ज्येष्ट अष्टमी का दिन था। इसलिए हर साल इसी दिन मेला लगता है। माता को प्रसन्न करने के लिए दूध और शक्कर में पकाए चावलों का भोग चढ़ाने के साथ-साथ पूजा अर्चना और हवन किया जाता है।

भक्तों का मानना है कि माता आज भी इस जल कुंड में वास करती हैं। यह जल कुंड वक्त के साथ साथ रंग बदलता रहता है, जिससे भक्तों को अच्छे और बुरे समय का ध्यान हो जाता है। यह कुंड लाखों लोगों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है। एक भक्त ने बताया कि 90 के दशक में जब कश्मीर में हालात खराब थे तो उस समय जल कुंड का रंग काला हो गया था जो बुरे समय का प्रतीक है।

क्षीर भवानी मंदिर की खासियत यह भी है कि आज भी इस स्थान पर सदियों से चला आ रहा कश्मीरी भाईचारा जिंदा है। मंदिर में चढ़ने वाली सामग्री इलाके के स्थानीय लोग बेचते हैं जो भाईचारे का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।
एक कथा के अनुसार, रावण की भक्ति से प्रसन्न होकर मां राज्ञा माता (क्षीर भवानी या राग्याना देवी) ने रावण को दर्शन दिए।

जिसके बाद रावण ने उनकी स्थापना श्रीलंका की कुलदेवी के रूप में की। लेकिन कुछ समय बाद रावण के व्यवहार और बुरे कर्म के चलते देवी उससे रूष्ठ हो गईं और श्रीलंका से जाने की इच्छा व्यक्त की। मान्यता है कि जब राम ने रावण का वध कर दिया तो राम ने हनुमान को यह काम दिया कि वह देवी के लिए उनका पसंदीदा स्थान चुनें और उनकी स्घ्थापना करें। इस पर देवी ने कश्मीर के तुलमुल्ला को चुना।

माना जाता है कि वनवास के दौरान राम राग्याना माता की आराधना करते थे तो मां राज्ञा माता को रागिनी कुंड में स्थिपित किया गया। मान्यता है कि क्षीर भवानी माता किसी भी अनहोनी का संकेत पहले ही दे देती हैं और उनके कुंड यानि चश्मे के पानी का रंग बदल जाता है। इतना ही नहीं क्षीर भवानी के रंग परिवर्तन का जिक्र आइने अकबरी में भी है।

प्राचीन समय में एक कश्मीरी पुरोहित को माता ने सपने में बताया कि इस मंदिर का नाम क्षीर या खीर भवानी रखें। हर साल पूजा से पहले मंदिर के कुंड में दूध और खीर डालते हैं। इस खीर से चश्मे का पानी रंग बदलता है।

खीर का मतलब दूध और भवानी का मतलब भविष्यवाणी है। यही कारण है कि झरने की मंदिर में बहुत महत्ता है। इस विचार से यहां के मुसलमान और पंडित दोनों सहमत हैं। यहां के मुस्लिमों का मानना है कि, ये हमारे लिए तीर्थ है, हमारी मुराद पूरी होती है, एक स्थानीय मुस्लिम के अनुसार, उनकी दादी कहती थीं, माता भगवान की चहेती महिला थीं जो कभी मछली तो कभी कोयल का रूप धारण कर कश्मीर में बसती रही हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, कहते हैं जिस चश्मे में इस समय देवी जगदंबा का वास समझा जाता है, वहां पर आज से कई सौ वर्ष पूर्व तूत का एक बड़ा पेड़ विद्यमान था। लोग चश्मे में उसी पेड़ को देवी का प्रतिरूप मानकर पूजा करते थे। इसीलिए इस तीर्थस्थान को तुलमुल्ला कहा जाता है। 

किंवदंती यह भी है कि भगवान राम बनवास के दौरान कई वर्षों तक माता जगदंबा देवी की पूजा करते रहे। देवी का वर्तमान जलकुंड 60 फुट लंबा है। इसकी आकृति शारदा लिपि में लिखित ओंकार जैसी है। जलकुंड के जल का रंग बदलता रहता है जो इसकी रहस्यमय दिव्यता का प्रतीक है।

मंदिर के पुजारियों का विश्वास है कि चश्मे का पानी अगर साफ हो तो सबके लिए अच्छा शगुन है, किंतु अगर पानी मटमैला हो तो कष्ट और परेशानी का कारण बनता है। जलकुंड के बीच में जगदंबा माता का भव्य मंदिर विद्यमान है। सन् 1868 ई में जब स्वामी विवेकानंद कश्मीर आए, तो इन्होंने अपनी यात्रा के अधिकांश दिन देवी के चरणों में व्यतीत किए। प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहां भक्तजन काफी मात्रा में आते हैं।

जयेष्ठ शुक्ल पक्ष अष्टमी को क्षीर-भवानी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। उस दिन यहां विशेष मेला लगता है।

Web Title: Ksheer Bhavani reflects the faith of the Hindu community of Kashmir

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