जयंती विशेषः कांशीराम, जिन्होंने राजनीति को दलितों की चौखट तक ले जाने का सपना देखा!
By आदित्य द्विवेदी | Published: March 15, 2019 07:24 AM2019-03-15T07:24:55+5:302019-03-15T07:24:55+5:30
'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' के नारे के साथ दलित अधिकारों का बीड़ा उठाने वाले कांशीराम भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव लेकर आए। भारतीय राजनीति में दलितों की प्रासंगिकता के लिए उनका योगदान बेहद अहम है....
राजनीतिक गलियारों में एक घटना काफी चर्चित है। माना जाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी एकबार कांशीराम के पास राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव लेकर गए थे। कांशीराम ने बिना वक्त लगाए अटल बिहारी वाजपेयी के प्रस्ताव को यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्हें प्रधानमंत्री बनना है। इस घटना से कांशीराम के जीवन के उद्देश्य को समझा जा सकता है। उनका सपना राजनीति को दलित की चौखट तक लेकर जाना था। उनका नारा था- 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'। दलित नेता, अंबेडकरवादी और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की आज जन्मतिथि है। आइए, उनके जीवन के अहम पहलुओं पर एक नजर डालते हैं।
- कांशीराम का जन्म पंजाब के रोरापुर में 15 मार्च 1943 को रैदासी सिख परिवार में हुआ था। उन्होंने विज्ञान से स्नातक किया और उसके बाद डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) में सहायक वैज्ञानिक के तौर पर काम शुरू कर दिया।
- कांशीराम का जीवन बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर से काफी प्रभावित रहा। उन्होंने दलित अधिकारों की आवाज उठाने की ठानी। 1965 में आंबेडकर के जन्मदिन पर सार्वजनिक अवकाश रद्द करने के लिए संघर्ष किया।
- 1971 तक वो समझ चुके थे कि दलित अधिकारों की लड़ाई और नौकरी एकसाथ नहीं की जा सकती। उन्होंने इसी साल नौकरी छोड़ दी और संस्था की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य दलित और पिछड़ों को जागरूक करना था। 1973 में उन्होंने पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी फेडरेशन की स्थापना की।
- 1980 में उन्होंने अम्बेडर मेला नाम से पदयात्रा शुरू की। देश भर में घूमते हुए उन्होंने आंबेडकर के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। जातिप्रथा के जहर के प्रति जागरूक किया। 1984 में कांशीराम ने 'बहुजन समाज पार्टी' के नाम से राजनीतिक दल का गठन किया।
- कांशाराम ने 1991 में पहली बार उत्तर प्रदेश के इटावा से लोकसभा चुनाव लड़ा। दूसरी बार 1996 में पंजाब के होशियारपुर से जीत दर्ज की। इस दौरान उनकी तबियत काफी खराब रहने लगी।
- 2001 में उन्होंने मायावती को बहुजन समाज पार्टी का उत्तराधिकारी घोषित किया। 2004 में उनका स्वास्थ्य बिल्कुल टूट गया और उन्होंने सार्वजनिक जीवन छोड़ दिया। 9 अक्टूबर 2006 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।