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कभी हिजबुल मुजाहिद्दीन के लिए काम करते थे शेख मुद्दसीर, अब मदरसों में जाकर बच्चों से कहते हैं- जैसे मैंने अपना जीवन बर्बाद किया, तुम वैसा मत करना

By विनीत कुमार | Updated: April 29, 2022 09:18 IST

शेख मुद्दसीर 12वीं में थे जब पत्थरबाजी की घटनाओं में शामिल हुए। वे हिजबुल मुजाहिद्दीन के लिए भी काम करने लगे थे। उन्हें तीन बार जेल जाना पड़ा। अब इनकी सोच बदल गई है। वे खुद बच्चों को गलत राह पर नहीं जाने के लिए समझाते हैं।

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ठळक मुद्देसाल 2000 के आसपास 12वीं में पढ़ते हुए शेख मुद्दसीर जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजी और अन्य अलगाववादी कामों में जुटे थे।अब मदरसों में किशोरों और बच्चों को जाकर खुद इस गलत राह से अलग रहने की नसीहत देते हैं।35 साल के शेख मुद्दसीर को ब्रेन ट्यूमर है और उनके पास खुद के इलाज और ऑपरेशन के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं।

श्रीनगर: जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद की सोच आज भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। पिछले कुछ दशकों में कई किशोर और युवा अलगाववाद की सोच के साथ गलत राह पर चल पड़े। कुछ ऐसी ही कहानी शेख मुद्दसीर की भी है जो कई साल पाकिस्तान के हिजबुल मुजाहिद्दीन आतंकी समूहों के लिए काम करने के बाद उस भटकी हुई राह को छोड़कर वापस लौट आए हैं और मौजूदा दौर के युवाओं को ये समझाते रहते हैं कि जिस तरह उन्होंने अपनी जिंदगी बर्बाद की उस तरह आज के किशोर और युवा नहीं करें।

आम जिंदगी से आतंक की ओर, फिर बदला रास्ता

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार शेख मुद्दसीर साल 2000 के करीब स्कूल आने-जाने वाले आम किशोरों में से एक थे। इसी दौरान वे अलगाववादी विचारधारा वाले लोगों के संपर्क में आए जो मुद्दसीर के शब्दों में उस समय 'कैंसर की तरह फैल' रहा था। उनका स्कूल छूट गया और वे उत्तर कश्मीर में अपने पैतृक पुराने बारामुला में पत्थरबाजी में शामिल हो गए। इसी दौरान वे पाकिस्तान समर्थित हिजबुल मुजाहिद्दीन आतंकी ग्रुप के लिए करने लगे।

मुद्दसीर अब 35 साल के हैं और उनके दिमाग में ट्यूमर हो गया है। इसकी वजह से उनकी तबियत बेहद खराब है और उनका समय अब बिस्तर पर ही गुजरता है। उनके पास इतने पैसे और ऐसी मदद भी नहीं है कि वे अपनी जिंदगी बचाने के लिए महंगा ऑपरेशन करा सकें।

मदरसा जाकर बच्चों को समझाते हैं मुद्दसीर

डॉक्टरों ने मुद्दसीर को ज्यादा घूमने-फिरने से मना किया है। इसके बावजूद वे अपने इलाके के मदरसों में अक्सर जाते हैं और युवाओं को सूबे में आतंकी गुटों से दूर रहने के बारे में समझाते हैं। खासकर ऐसे बच्चे या युवा जो अनाथ हैं, उन्हें वे खासतौर इसके लिए आगाह करते हैं। मुद्दसीर बच्चों को समझाने के दौरान खुद अपनी ही जिंदगी के कई उदाहरण उनके सामने रखते हैं और कहते हैं कि जिस तरह उन्होंने 'अपना जीवन बर्बाद कर लिया, वैसा वे लोग अपनी जिंदगी के साथ नहीं करें।'

यह पूछने पर कि क्या उन्हें डर नहीं लगता, मुद्दसीर बताते हैं कि उन्हें लश्कर-ए-तैयबा और इसके जैसे अन्य आतंकी संगठनों से धमकी मिलती रही है। मुद्दसीर कहते हैं- 'वे मुझे गोली मार सकते हैं। तो इससे क्या? मैं तो ऐसे भी मर रहा हूं।' मुद्दसीर कहते हैं कि वे अल्लाह के शांति के संदेश को फैलाने का काम करते रहेंगे।

तीन बार जेल गए मुद्दसीर

मुद्दसीर बताते हैं, 'मैं 2006 में बारहवीं कक्षा में था जब मैं पत्थरबाजी में लग गया और हिजबुल आतंकवादियों के संपर्क में आया। मैं स्कूल से बाहर हो गया और संगठन के लिए एक ओवरग्राउंड वर्कर बन गया। मैंने कुछ पैसे कमाने के लिए बच्चों को निजी ट्यूशन भी दिया करता था।' 

मुद्दसीर के मुताबिक 2007 में उन्हें सुरक्षा बलों पर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और उन्होंने तब छह महीने जेल में बिताए थे। उन्होंने कहा, 'मुझे रिहा कर दिया गया, लेकिन मैं हिजबुल के पास वापस चला गया और फिर से पत्थर फेंकना शुरू कर दिया। मुझे 2008 में दूसरी बार गिरफ्तार किया गया था।' 

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उन्हें 2010 में फिर पकड़ा गया। इस बार उन्हें एक साल के लिए उधमपुर जेल भेज दिया गया। मुद्दसीर के अनुसार, 'वहां मैंने देखा कि हुर्रियत कांफ्रेंस के राजनीतिक कैदियों को कितने विशेष अधिकार प्राप्त थे। हम जैसे लोग बदबूदार कोठरियों में डूबे रहते थे, जबकि वे आलीशान कमरों में रहते थे। उन्हें पॉकेट मनी के रूप में जेल के अंदर 5,000 रुपये प्रति माह मिलते थे।' 

मुदासिर ने कहा कि वे इस वास्तविकता को देखकर हैरान थे और जग गए थे लेकिन उनके जीवन में नया मोड़ तब आया जब जेल अधीक्षक रजनी सहगल (एक आईपीएस अधिकारी) ने उन्हें सलाह दी और आतंक और पत्थरबाजी के रास्ते को छोड़ने के लिए कहा। 

मुदासिर ने कहा, 'उन्होंने मुझसे कहा कि पाकिस्तान हमें चारे के रूप में इस्तेमाल कर रहा है और हमारे नेता जेलों के बाहर और अंदर एक राजा की तरह जीवन जी रहे हैं। मैंने इसे खुद देखा।' 

साल 2010 के अंत में मुद्दसीर के पिता की मृत्यु के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। उस समय के आसपास उन्हें तेज सिरदर्द हुए। इसके बाद ब्रेन ट्यूमर की बात सामने आई। मुद्दसीर ने कहा कि पिता की मृत्यु के बाद उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। उन्हें लगा कि माँ, दो बहनों और दो भाइयों को उनके समर्थन की ज़रूरत है। ऐसे में उन्होंने लोगों को उनके पासपोर्ट और अन्य आधिकारिक दस्तावेज बनाने में मदद करने वाले एजेंट के रूप में काम शुरू किया। वे कंप्यूटर चला सकते थे। इससे मदद मिली।

मदद के लिए हुर्रियत के नेताओं ने दिया बस आश्वासन

मुद्दसीर ने कहा कि उनकी कमाई मुश्किल से छह लोगों के परिवार का भरण पोषण कर पाती थी। ऐसे में वह अपने इलाज के लिए एक भी पैसा नहीं बचा सके। मुद्दसीर ने कहा कि वे हुर्रियत के अली शाह गिलानी और मीरवाइज उमर फारूक से भी श्रीनगर में मिले और अपनी बीमारी बताई। दोनों नेताओं ने उन्हें 2,000 रुपये दिए और मदद का वादा करते हुए मेडिकल पेपर रख लिया।

मुद्दसीर के अनुसार, 'मैं फिर उनसे मिलने गया लेकिन गेट पर मौजूद गार्डों ने मुझे भगा दिया।' इस बीच उन्होंने थोड़े से पैसे और कुछ उम्मीद के साथ मदरसों का दौरा करना शुरू कर दिया ताकि बच्चों को "अलगाववादी आंदोलन के नेताओं द्वारा किए गए काल्पनिक वादों के पीछे अपना जीवन बर्बाद नहीं करने के लिए समझा सके। डॉक्टरों के मुताबिक NIMHANS बेंगलुरु में उपलब्ध साइबरनाइफ रोबोटिक उपचार से मुद्दसीर की जान बच सकती है पर मुद्दसीर कहते हैं कि वे इस महंगे इलाज का वहन कैसे कर सकेंगे।

टॅग्स :जम्मू कश्मीरHizbul Mujahideen
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