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यदि विधवा का पुनर्विवाह सिद्ध होता है तब पहले पति की संपत्ति से उसका अधिकार समाप्त हो जाएगा — उच्च न्यायालय

By भाषा | Updated: July 5, 2021 17:35 IST

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बिलासपुर, पांच जुलाई छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने कहा है कि यदि किसी विधवा का पुनर्विवाह क़ानून के अनुसार पुनर्विवाह “पूरी तरह सिद्ध” हो जाता है तो ऐसी अवस्था में उक्त विधवा स्त्री का अपने दिवंगत पति की संपत्ति पर अधिकार समाप्त हो जाएगा।

न्यायमूर्ति संजय के अग्रवाल की एकल पीठ ने 28 जून को अपीलकर्ता लोकनाथ की विधवा किया बाई के खिलाफ दायर संपत्ति के मुकदमे से संबंधित एक अपील खारिज कर दी है। अपील में दावा किया गया था कि विधवा ने स्थानीय रीति-रिवाजों के माध्यम से पुनर्विवाह किया था। अपीलकर्ता लोकनाथ किया बाई के पति का चचेरा भाई है।

आदेश में कहा गया है कि हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 की धारा छह के अनुसार पुनर्विवाह के मामले में शादी के लिए सभी औपचारिकताओं को साबित करना आवश्यक है।

आदेश के अनुसार यह विवाद किया बाई के पति घासी की संपत्ति के हिस्से से संबंधित है। घासी की वर्ष 1942 में मृत्यु हो गई थी। विवादित संपत्ति मूल रूप से सुग्रीव नाम के व्यक्ति की थी जिनके चार बेटे मोहन, अभिराम, गोवर्धन और जीवनधन थे। सभी की मृत्यु हो चुकी है। गोवर्धन का एक पुत्र लोकनाथ इस मामले में वादी था जबकि घासी, अभिराम का पुत्र था।

लोकनाथ, जो अब जीवित नहीं है, ने यह दावा करते हुए अदालत की शरण ली थी कि किया बाई ने अपने पति की मृत्यु के बाद वर्ष 1954-55 में चूड़ी प्रथा (एक पारंपरिक रिवाज जिसमें एक व्यक्ति विधवा को चूड़ियां भेंट कर शादी करता है) के माध्यम से दूसरी शादी की थी और इसलिए उसे और उसकी बेटी सिंधु को संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिल सकता है।

किया बाई, जिसकी भी अदालत में मामले के दौरान मृत्यु हो गई है, और उसकी बेटी ने एक संयुक्त बयान में कहा था कि संपत्ति का विभाजन घासी के जीवनकाल में ही हो चुका था और उसकी मृत्यु के बाद दोनों संपत्ति में काबिज रहे हैं। साथ ही किया बाई का नाम वर्ष 1984 में तहसीलदार द्वारा राजस्व अभिलेखों में शामिल किया गया था।

यह भी कहा गया कि किया बाई ने कभी दोबारा शादी नहीं की थी इसलिए दीवानी मुकदमे को खारिज कर दिया जाना चाहिए।

निचली अदालत ने पहले माना था कि किया बाई और उनकी बेटी संपत्ति में किसी भी हिस्से की हकदार नहीं हैं, जिसे पहली अपीलीय अदालत ने यह कहते हुए उलट दिया था कि घासी और उनके पिता अभिराम के जीवनकाल के दौरान संपत्ति का विभाजन किया गया था जो किया बाई के कब्जे में रही। अपने पति की मृत्यु के बाद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के लागू होने के बाद किया बाई संपत्ति की पूर्ण मालिक बन गई इसलिए वादी किसी भी डिक्री के लिए हकदार नहीं है। बाद में दूसरी अपील उच्च न्यायालय में दायर की गई।

मामले की सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने 18 जून को अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था जिसे 28 जून को सुनाया गया।

आदेश में कहा गया है रिकॉर्ड में कोई स्वीकार्य सबूत नहीं है कि किया बाई ने दोबारा शादी की थी और संपत्ति पर अपना अधिकार खो दिया था।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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