हल्द्वानी अतिक्रमण मामला: SC ने कहा नहीं चलेगा बुलडोजर,जाने पूरा मामला
By मेघना सचदेवा | Published: January 5, 2023 07:26 PM2023-01-05T19:26:57+5:302023-01-05T19:57:52+5:30
उत्तराखंड के हल्द्वानी स्थित बनभूलपुरा और गफूर बस्ती मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बस्ती वालों को फौरी राहत देते हुए कहा कि जिन लोगों का जमीन पर कानूनी हक नहीं है उन्हें वह खाली करने होगी लेकिन रेलवे और सरकार को वाजिब दावेदारों के पुनर्वास पर विचार करना चाहिए। सर्वोच्च अदालत अब 7 फरवरी को मामले पर फिर सुनवाई करेगी।
देहरादून: उत्तराखंड के हल्द्वानी स्थित बनभूलपुरा और गफूर बस्ती में रेलवे की 78 एकड़ जमीन पर बने 4365 अवैध कच्चे-पक्के मकानों को हटाने का मामला तूल पकड़ चुका है। हाईकोर्ट ने आदेश पर उत्तराखण्ड प्रशासन ने जब जमीन खाली करने की कार्रवाई शुरू की तो सियासत शुरू हो गयी। राज्य की भाजपा सरकार पर यह भी आरोप लगा कि रेलवे की जमीन पर कब्जा करके रहने वालों में ज्यादा मुसलमान हैं और इस इलाके से भाजपा लगातार विधानससभा चुनाव हारती रही है इसलिए सरकार उनको बेदखल करने में तेजी दिखा रही है।
इसी बीच मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बस्ती वालों को फौरी राहत देते हुए कहा कि जिन लोगों का जमीन पर कानूनी हक नहीं है उन्हें वह खाली करने होगी लेकिन रेलवे और सरकार को वाजिब दावेदारों के पुनर्वास पर विचार करना चाहिए। सर्वोच्च अदालत अब 7 फरवरी को मामले पर फिर सुनवाई करेगी।अब हम आपको विस्तार से बता रहे हैं कि यह विवाद कब से शुरू हुआ। आपके लिए यह जानना भी बेहद दिलचस्प होगा कि कैसे अतीत में कांग्रेस सरकार के दौरान भी यह मामला उठा था लेकिन लोगों के मुखर विरोध के बाद तत्कालीन सरकार ने किस तरह से हाथ पीछे खिंच लिया था।
दरअसल हल्दानी में रेलवे की जमीन पर कब्जा करने का मामला 2007 में तब सुर्खियों में आया जब रेलवे लाइन के विस्तार की मांग उठी। बता दें कि साल 1880 में हल्दानी में रेलवे लाइन बिछाई गई थी लेकिन 2007 तक इसका ज्यादा विस्तार नहीं हुआ था और जब रेलवे ने विस्तार करना शुरू किया तो सबसे पहले हल्दानी स्टेशन के पास रेलवे की जमीन को खाली कराने की कवायद तेज हुई हालांकि इस मुद्दे पर राजनीति हावी होने के साथ साथ मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया था। लेकिन कुछ ही समय में मामला शांत हो गया था। रेलवे ने इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया और उसके द्वारा जमीन नहीं खाली कराई गई।
रेलवे ने उसी वर्ष यानी 2007 में उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक हलफनामा दायर करके बताया कि उसने 29 एकड़ में से 10 एकड़ को अतिक्रमणकारियों से मुक्त करवा लिया है। इसके साथ ही रेलवे ने अदालत से एक आदेश पारित करने की अपील की जिसमें वो राज्य के अधिकारियों को निर्देश दे कि बाकी जमीन खाली कराने में वो रेलवे की मदद करें।हालांकि वहां पर कोई जमीन खाली नहीं हुई थी, जिन लोगों ने प्रशासन की बात उस वक्त जमीन खाली भी कर दी थी। उन्होंने दोबारा जमीनों पर कब्जा कर लिया, मानों मामला बिल्कुल शांत हो गया हो।
7 साल बाद साल 2014 में यह मुद्दा फिर उठा क्योंकि समाजसेवी रविशंकर जोशी ने अतिक्रमण के खिलाफ आवाज उठाई और अदालत में एक जनहित याचिका दायर कर दी।इस बार गौला नदी पर बने पुल को लेकर भी मुद्दा गरमा गया। 9.40 करोड़ रुपये की लागत से बना यह पुल बनने से कुछ ही सालों के बाद टूट गया था। कहा जाता है इस पुल को नुकसान का मुख्य कारण अवैध खनन था और आरोप लगा कि अवैध खनन करने वाले वही लोग हैं, जो रेलवे के पास जमीनों पर अवैध कब्जा जमाए हुए हैं।गौला नदी पर बना पुल हल्दानी के इंदिरानगर बाइपास पर बना हुआ है। यह पुल गौलापार के अलावा काठगोदाम, चोरगलिया और सितारगंज जाने का एकमात्र विकल्प है। इस पुल को लेकर वक्त-वक्त पर अखबारों में लेख भी छपते रहे कि अवैध खनन से कैसे इस पुल की बुनियाद खोखली होती गई और आखिरकार पुल गिर गया।
रविशंकर जोशी की याचिका पर सुनवाई हुई। सुनवाई के बाद कोर्ट ने एचएम भाटिया को कमिश्नर नियुक्त किया था । एडवोकेट कमिश्नर ने क्षेत्र का दौरा किया और 26 जून 2015 को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें ये दावा किया कि हल्द्वानी स्टेशन के पास रेलवे ट्रैक के पास रहने वाले अतिक्रमणकारियों ने अवैध खनन में लिप्त होकर पुल को गिरा दिया।रिपोर्ट के बाद उच्च न्यायालय ने रेलवे को तलब किया जिसने एक बार फिर दोहराया कि उसकी 29 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया गया है। जिसके बाद मामले को लेकर अदालत ने 9 नवंबर 2016 को एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें अधिकारियों को रेलवे संपत्ति से अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया गया।
साल 2016 में ही उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने बाद में अदालत से अपने अंतरिम आदेश की समीक्षा करने की मांग की। राज्य ने कहा कि अतिक्रमणियों को हटाया नहीं जा सका क्योंकि रेलवे संपत्ति का कोई सीमांकन नहीं था। राज्य ने एक जवाबी हलफनामा भी दायर किया जिसमें कहा गया कि भूमि रेलवे की नहीं बल्कि राजस्व विभाग की है।इसके बाद 10 जनवरी 2017 को उच्च न्यायालय ने एक बार फिर राज्य सरकार को अतिक्रमण हटाने को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
बाद में अदालत को बताया गया कि यह भी स्पष्ट नहीं है कि विचाराधीन भूमि रेलवे की है या नहीं। यह भी सूचित किया गया कि 29 एकड़ का कोई सीमांकन नहीं है जैसा कि याचिकाकर्ता ने जनहित याचिका में आरोप लगाया है।शीर्ष अदालत ने 18 जनवरी 2017 को कहा कि पीड़ित याचिकाकर्ताओं को उच्च न्यायालय द्वारा सुना जाना चाहिए। इसने प्रभावित पक्षों को निर्देश दिया कि वे उच्च न्यायालय का रुख करें।
दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को दिशा निर्देश दिए थे कि अगर रेलवे की भूमि में अतिक्रमण किया गया है तो पटरी के आसपास रहने वाले लोगों को दो सप्ताह के अंदर तथा उसके बाहर रहने वाले लोगों को छह सप्ताह में नोटिस देकर हटाया जाए।पूर्व में कुछ अतिक्रमणकारी भी राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट गए थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए मामला हाईकोर्ट को हस्तांतरित कर दिया।
हाईकोर्ट ने 20 दिसंबर को हल्द्वानी के वनभूलपुरा गफूर बस्ती में रेलवे की भूमि पर किए गए अतिक्रमण को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद रेलवे को अतिक्रमणकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए।जिसके बाद बड़े पैमाने पर इस अतिक्रमण को हटाने की तैयारी चल रही थी हालांकि बनभूलपुरा के लोग फिर कांग्रेस के साथ कोर्ट पंहुचे और सु्प्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की जिसके बाद गुरुवार को कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा अतिक्रमण खाली कराने के आदेश पर स्टे लगाते हुए वहां के लोगों के पुर्नवास का प्लान मांगा है।