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भारत में शिक्षा समावेशी नहीं, शिक्षा के मामले में हम अब भी पीछे: शीर्ष अदालत के न्यायाधीश

By भाषा | Updated: November 1, 2021 18:07 IST

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भुज, एक नवंबर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू यू ललित ने सोमवार को कहा कि सतत विकास के मानकों के अनुसार भारत में शिक्षा के मामले में अभी भी कमी है क्योंकि देश ने ‘‘समावेशी शिक्षा’’ का लक्ष्य हासिल नहीं किया है। न्यायाधीश ने इस मोर्चे पर और अधिक प्रयास करने तथा हर बच्चे को अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता को रेखांकित किया।

न्यायमूर्ति ललित गुजरात के भुज में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नलसा) के अखिल भारतीय संपर्क अभियान के तहत आयोजित एक कानूनी सेवा शिविर और जागरूकता कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आए थे। नलसा का यह राष्ट्रव्यापी अभियान दो अक्टूबर को शुरू हुआ और 14 नवंबर को समाप्त होगा।

नलसा के कार्यकारी अध्यक्ष न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी), नेशनल लॉ स्कूल जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों ने अपने-अपने क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की है लेकिन देश में प्राथमिक और माध्यमिक सरकारी स्कूलों के मामले में ऐसा नहीं है। उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति ललित ने पूछा, ‘‘क्या सरकारी स्कूल किसी भी नागरिक के लिए अपने बच्चे को भेजने के लिए पहली पसंद हैं, या यह निजी क्षेत्र का स्कूल है जिसे पहली पसंद माना जाता है?’’

न्यायमूर्ति ने कहा, ‘‘हमारी शिक्षा समावेशी नहीं है। कुछ गांवों और बड़े शहरों में जो शिक्षा प्रदान की जाती है, उनकी गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं है। हमें इन सब पर विचार करना चाहिए। जब तक हम इसे हासिल नहीं कर लेते, सतत विकास मानकों के अनुसार शिक्षा के मामले में हम कमजोर रहेंगे।’’

शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि इसके लागू होने के लगभग 11 साल बाद प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में छात्राओं की भागीदारी बढ़ी है। उन्होंने कहा, ‘‘केवल शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है और शिक्षा में समावेशिता के पहलू पर विचार करने की जरूरत है। मेरा मानना है कि इस दिशा में कुछ प्रयास करने की आवश्यकता है।’’

शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ने कहा, ‘‘यदि शिक्षा इस देश में हर बच्चे का सबसे मौलिक और महत्वपूर्ण अधिकार है तो यह हमारा परम कर्तव्य है कि हम उन्हें अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराएं।’’ साथ ही कहा कि जब तक यह हासिल नहीं हो जाता, तब तक कोई यह नहीं मान सकता कि गरीबी को विश्व मानकों के संदर्भ में समाप्त किया जा रहा है।

‘‘गरीबी उन्मूलन’’ के बारे में न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि इसे सतत विकास लक्ष्यों के मानदंड से देखा जाना चाहिए, न कि केवल ‘‘गरीबी रेखा से नीचे’’ के आंकड़ों के संदर्भ में। न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि अदालतों में 100 में से केवल एक व्यक्ति कानूनी सेवा प्राधिकारों द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता का लाभ उठा रहा है।

उन्होंने कहा, ‘‘इस अखिल भारतीय जागरूकता कार्यक्रम के माध्यम से हमारा प्रयास उसी अधिकार के बारे में बीज अंकुरित करने, अधिकारों की व्याख्या करने का प्रयास है।’’

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम आर शाह ने कहा कि कानूनी सेवाओं का लाभ उठाने के मामले में लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘‘आपको पता होना चाहिए कि मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण कानूनी सेवाएं मुहैया कराने के प्रयास जारी हैं। हमारी कोशिश है कि पैसे और परामर्श की कमी के कारण कोई भी न्याय से वंचित न रहे।’’

गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अरविंद कुमार ने कहा कि मुफ्त और कानूनी सहायता के बारे में लोगों में जागरूकता की कमी का कारण बड़ी संख्या में गरीब, कमजोर और दलित आबादी के लिए न्याय तक पहुंच एक ‘‘दूर का सपना’’ है। उन्होंने कहा, ‘‘जब तक व्यापक अभियान के रूप में कानूनी जागरूकता नहीं फैलाई जाती तब तक आप नलसा के आदर्श वाक्य ‘न्याय सबके लिए’ यानी सभी को न्याय दिलाने में सफल नहीं हो सकते।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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